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________________ ६२० षट्प्राभृते . [६. ४७सर्वोऽपि जनपदो व्याहृतः । इष्टकाभिरुच्चां मंचिकां कृत्वा तल्लिगं छित्वा तदुपरि धृत्वा तल्लिगोपरि सुरतसुखक्षोणिं तदुपरि धृत्वा तन्मध्ये ऊर्ध्वमणि-शिवलिंग स्थापयित्वा जलेन प्रक्षाल्य परिमलबहुलेन चन्दनेन विलिप्य पुष्पाक्षतादिभिर्लोक राजाज्ञया पूजयित्वा तदिन्द्रिययोर्नमस्कारः कृतः तदा विद्याभिः क्षमा कृता, लोकस्योपसर्गस्य विनाशो जातः । तद्दिनमारभ्य प्रहतलज्ज लोकस्येश्वरं लिंगं पूज्यं जातमित्यज्ञानिभिर्लोकः श्रीमद्भगवदर्हत्परमेश्वरं परित्यज्य स एव देवः परमात्मीकृतः। इति मोक्षप्राभृते रुद्रोत्पत्युपाख्यानं जिनमुद्रापरिभ्रष्टत्वसूचकं समाप्तम् । जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ नियमेण जिणवरुद्द्विा । सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥४७॥ . जिनमद्रा सिद्धसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा। स्वप्नेपि न रोचते पुनः जीवा तिष्ठन्ति भवगहने ॥ ४७ ॥ .. (जिणमुद्दसिद्धिसुहं ) जिनमुद्रा सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिलक्षणमुक्तिसुखंसिद्धिसुखयोगाज्जिनमुद्रव सिद्धिसुखमुपचर्यते । ( हवेइ ) भवति । (नियमेण और उसके मध्य में खड़ा मणिमय शिवलिङ्ग रख कर जलसे उसका प्रक्षालन किया, चन्दन का विलेपन लगाया, पुष्प तथा अक्षत आदि से पूजा की इस प्रकार राजा की आज्ञा से लोगों ने उमा और रुद्र दोनों की इन्द्रियों को नमस्कार किया। उसी समय विद्याओं ने क्षमा कर दी और लोगों का उपसर्ग नष्ट हो गया। उसी दिन से लेकर लज्जा को नष्ट करने वाला शिवलिङ्ग लोगोंका पूज्य हो गया तथा अज्ञानी लोगों ने श्रीमान् भगवान् अरहन्त परमेश्वर को छोड़ कर उस देव को ही परमात्मा मान लिया। इस प्रकार मोक्षप्राभृत में जिन मुद्रा से भ्रष्टता को सूचित करने वाला रुद्रोत्पत्ति का कथानक समाप्त हुआ। गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कही हुई जिनमुद्रा नियम से सिद्धि सुख रूप है । जिन जीवों को यह जिनमुद्रा स्वप्नमें भी नहीं रुचती वे संसार रूप वनमें रहते हैं ।। ४७ ।। विशेषार्थ-यहाँ कारण में कार्य का उपचार कर जिनमुद्रा को ही सिद्धि सुख रूप कहा है। बिना जिनमुद्रा-दिगम्बर वेष धारण किये मोक्ष । १. 'तदामेढभगयोः द्वयोः' इति वा पाठः (१० टि० ) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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