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________________ मोक्षप्राभृतम् जीवाजीवविहत्ती जोई जाणे जिणवरमएणं । तं सण्णाणं भणियं अवियत्यं सव्वदरिसीहि ॥ ४१ ॥ जीवाजीवविभक्ति योगी जानाति जिनवरमतेन । तत् संज्ञानं भणितं अवितथ सर्वदर्शिभिः ॥ ४१ ॥ ( जीवाजीव विहत्ती) जीवाजीवानां विभक्तिः भेदस्तां जीवाजीव विभक्ति । ( जोई जाणेइ जिणव रमणं ) योगी दिगम्बरो मुनिः, जानाति वेत्ति यथावत्स्वरूपमवैति, जिनवर मतेन सर्वज्ञशासनेन । ( तं सण्णाणं भणियं ) तत्संज्ञानं भणितं तत्सम्यग्ज्ञानं कथितं । ( अवियत्थं सन्दरिसीहि ) अवितथं सत्यभूतं, सर्वदशभिः सर्वज्ञैरिति शेषः । उक्तं च -६. ४१-४२ ] 'अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् 1 निःसन्देहं वेद याहुतज्ज्ञानमागमिनः ॥ १ ॥ जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारितं भणियं अवियप्पं कम्मरहिए ॥ ४२॥ यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापयोः । तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्म्मरहितेन ॥ ४२ ॥ ६०३ के जीवों होता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति चारों गतियों के संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त भव्य जीवको हो सकती है ॥ ४० ॥ गाथार्थ - जो मुनि जिनेन्द्रदेव के मतसे जीव और अजीवके विभाग को जानता है उसे सर्वदर्शी भगवान् ने यथार्थ सम्यग्ज्ञान कहा है ॥ ४१ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि तत्व सात हैं तथापि संक्षेपसे उनका समावेश जीव और अजीव इन दो तत्वों में हो जाता है इस दृष्टिको हृदयस्थ कर श्रीकुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि जो जिनेन्द्रदेव के मतानुसार जीव और अजीव के विभाग को जानता है अर्थात् शुद्ध-बुद्धकस्वभाव आत्मा और उसके साथ लगे हुए कर्म नोकर्म तथा भावकर्म के विभाग को अच्छी तरह समझता है उसे सर्वज्ञ देवने सत्यभूत सम्यग्ज्ञान कहा है । कहा भी है- • अन्यून - जो ज्ञान वस्तुके स्वरूपको न्यूनता रहित, अधिकता रहित, जैसाका तसा, विपरीतता के बिना और संशय-रहित जानता है उसे आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं । गाथार्थ - यह सब जानकर योगी जो पुण्य और पाप दोनों का १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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