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________________ ५२३ -६. २९] मोक्षप्राभृतम् कगं मीनेन तिष्ठतीति प्राकृतवक्त्रमाहजं मया दिस्सदे रुवं तण्ण जाणादि सव्वहा । जाणगं दिस्सदे गंतं तम्हा जंपेमि केण हं ॥२९॥ यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । ज्ञायको दृश्यतेऽनन्तः तस्माज्जयामि केनाहम् ॥२९॥ (जं मया दिस्सदे रूवं ) यन्मया दृश्यते रूपं तद्पं स्त्रीप्रभृतिशरीरादिकं दृश्यतेऽवलोक्यते रूपं रूपिपदार्थ तत् सर्वं पुद्गलद्रव्यपर्यायत्वात्परमार्थतोऽचेतनं । ( तण्ण जाणादि सव्वहा ) तद्रूपं सर्वथा निश्चयनयेन न जानाति, अचेतनेन सह कथं जल्पामि । ( जाणगं दिस्सदे गंतं ) ज्ञायकमात्मानं रूपाश्रितं वस्तु, अनन्तमात्मतत्वमनन्तकेवलज्ञानस्वभावत्वादनन्तं यदहं तेन सह जल्लामि स तु जानात्ये आगे योगी मौन से क्यों रहता है ? इसका कारण बतलाने के लिये प्राकृत का अनुष्टुप छन्द कहते हैं गाथार्थ-जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह बिलकुल नहीं जानता और जो जानता है वह दिखाई नहीं देता तब में किसके साथ बात करू ॥२९॥ विशेषार्थ-जो स्त्री आदिके शरीर आदि रूपी पदार्थ दिखाई देते हैं वे सब पुद्गल हैं तथा परमार्थ से अचेतन हैं-वे कुछ भी नहीं जानते हैं इसलिये अचेतन पुगल के साथ कैसे बात करूं? और जो केवलज्ञान रूप स्वभाव से युक्त होनेके कारण अनन्त आत्म-तत्व अनुभवमें आता है . वह मात्र ज्ञायक है-बोल नहीं सकता है, अतः किसके साथ बोलू ? : किसके साथ बात करूं ? अथवा किस कारण बोलू? यह विचार कर योगी मौनको ही शरण मानते हैं अर्थात् किसी से कुछ कहते नहीं हैं ॥२९॥ - [जाणगं दिस्सदे णंतं-यहां संस्कृत टीकाकारने जो अनन्तं, छाया स्वीकृत की है तथा उसीके आधार पर संस्कृत टीका की है, उससे गाथा का भाव दूसरा होगया है। हमारी समझसे इसकी छाया 'न तत्' होना . चाहिये और तब गाथाका अर्थ यह होता है यह आत्मा ज्ञायक है वह दिखाई नहीं देता । यही भाव पूज्यपाद ने इस गाथाकी अनुकृति कर जो ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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