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________________ षट्प्राभूते [ ५.१५२ भत्तिराएण ) नमन्ति नमस्कुर्वन्ति ये आसन्नभम्याः परमभत्तिरागेण परमभक्त्यनुरागेणाकृत्रिमस्नेहेन । ( ते जम्मबेल्लिमूलं ) ते पुरुषा जन्मवल्लीमूलं खनन्तीति सम्बन्धः, जन्मैव वल्ली संसारवीत् अनन्तानन्तप्रसारत्वात् तस्या मूलं कन्दं वनंति उत्पाटयन्ति उद्धरन्ति समूलकार्ष कषन्तीत्यर्थः मोहस्य विच्छेदकत्वात्, संसारवल्लीमूलं मिथ्यात्वमोहः तस्यः मूलं खनन्ति सम्यग्दृष्टयो भवन्ति । उक्तं च श्रीभोजराजमहाराजेन ५४८ 'सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय दृष्टव्यमस्ति यदि मंगलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ ! तवैव वक्त्रं त्रैलोक्यमंगल निकेतनमीक्षणीयं ॥ "1 ( खणंति वरभावसत्येण ) सनन्ति निमूलकाषं कर्षान्ति, केन कृत्वा ? वरभावशस्त्रेण विशिष्टभावनाकुद्दालेन द्रात्रादिना वा । जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्प कसायविसएहि सम्पुरिसो ॥ १५२ ॥ यथा सलिलेन न लिप्यते कर्मालिनोपत्रं स्वभावप्रकृत्या । तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयः सत्पुरुषः ॥ १५२॥ (जह सलिलेण ण लिप्पइ ) यथा येन प्रकारेण सलिलेन जलेन न लिप्यते न स्पृश्यते । किं तत्कर्मतापन्न, ( कमलणिपत्तं सहावपयडीए) कमलिनीपत्रं पद्मनीच्छदः स्वभावप्रकृत्या निजस्वभावेन । (तह भावेण ण लिप्पइ) तथा तेन प्रकारेण करते हैं वे जन्मवल्ली अर्थात् संसार रूपी लता के मूल को - जड़को खोद डालते हैं । संसार रूपी लता का मूल मिथ्यात्व रूप मोह है उसे जो विशिष्ट भावना रूपी कुदालो के द्वारा खोदते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं । जैसा कि भोज महाराज ने कहा है सुप्तोत्थितेन - सोकर उठे हुए सत्पुरुष को यदि सुमङ्गल के कोई माङ्गलिक वस्तु देखने योग्य है तो हे नाथ ! और दूसरी वस्तु की क्या आवश्यकता है ? उसे तीन लोक के मङ्गलोंका घर स्वरूप आपके श्री मुखका ही दर्शन करना चाहिये । गाथार्थ - जिस प्रकार कमलिनी का पत्ता स्वभाव से ही जलसे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार सत्पुरुष - सम्यग्दृष्टि मनुष्य स्वभाव से ही कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता ॥ १५२॥ १. जिन चतुरविशतिका स्तोत्रे भृपाल कबेः । २. न लिप्पड़ क० ६० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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