SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५. १४४] भावप्रामृतम् ५३७ सम्बन्धिनो ये मणयस्तेषु मध्ये यन्माणिक्यं परागमणिः मध्यफणाया उपरि स्थितं यल्लालरत्नं तस्य सर्वोत्तमरत्नस्य ये किरणा रश्मयस्तविस्फुरितो धरणेन्द्रः शेषनागानामा पद्मावतीदेवीप्राणवल्लभः पातालस्वर्गलोकस्वामी यथा शोभते । ( तह विमलदसणधरो) तथा तेन प्रकारेण विमलदर्शनघरो निर्मलसम्यक्त्वमंडितो मुनिः श्रावको वा। (जिणभत्तीपवयणो जीवो ) जिनभक्तिरेव प्रवचनं गोप्यतत्वसिद्धान्तः, जीव आत्मा चातुर्गतिकोऽपि पंचेन्द्रियसंज्ञिजीवः शोभते । तथा चोक्तं सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजं । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्त जसं ॥ १ ॥ जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले। भाविय तववयविमलं जिर्णालगं दंसणविसुद्धं ॥१४४॥ - यथा तारागणसहितं शशधरविम्बं खमंडले विमले । भावितं तथा व्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् ॥१४४॥ (जह तारायणसहिय ) यथा येन प्रकारेण तारागणसहितं । ( ससहरबिंब खमंडले विमले ) शशधरबिंबं चन्द्रमण्डलं खमण्डले गगनमण्डले । कथंभूते, विमले था जिसके हजार फण थे, एक एक फण पर एक एक मणि चमक रही थी और बोच के फण पर माणिक्य अर्थात् लाल रङ्गका पद्मरागमणि देदीप्यमान हो रहा था उन सब मणियों और माणिक्य की किरणों से उस नाग को शोभा अद्भुत जान पड़ती थी उसी नागकी उपमा देते हए यहाँ आचार्य सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हैं, वे कहते हैं कि जिस प्रकार उन मणियों की किरणों से शेषनाग शोभित होता है उसी प्रकार निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक मुनि सुशोभित होता है। सम्यग्दर्शन चारों गतियों के संज्ञो पञ्चेन्द्रिय भव्य जीव को हो सकता है तथा सम्यग्दर्शनके प्रभाव से उसकी महिमा बढ़ जाती है । जैसा कि कहा है. सम्यग्दर्शन-जिसका आभ्यन्तर तेज भस्ममें छिपे हुए अङ्गारके समान देदीप्यमान है गणधरादिक, ऐसे सम्यग्दृष्टि चाण्डाल को भी देव गाथार्थ-जिस प्रकार निर्मल आकाश में तारागण से सहित चन्द्रमा का बिम्ब सुशोभित होता है उसी प्रकार निरतिचार व्रतों से सहित एवं सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध जिनलिङ्ग सुशोभित होता है ।।१४४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy