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________________ ४६४ षट्प्रामृते भावसहिदो य मुगिणो पावइ आराहणाचउक्कं च । भावरहिदो य मुणिवर भमह चिरं दोहसंसारे ॥९७॥ भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च। . भावरहितश्च मुनिवर ! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ॥१७॥ ( भावसहिदो य मुणिणो) भावेन जिनसम्यक्त्वलक्षणेन सहिदो सहितः संहितः संयुक्तः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागचरणकमलचंचरीकः, अथवा भावः . . पूर्वोक्तलक्षणः 'स्वशुद्धबुद्धकस्वभाव आत्मा हितो यस्य यस्मै वा स भावसं हितः । चकारान्न 'मूनेरन्येषामपि भव्यजीवानां हितः त्रैलोक्यलोकतारणसमर्थत्वात् । यो भावसहितः स पुमान् मुणिणो-मुनीनामिनः स्वामी मुनीनः स मुनिमुनिचक्रवर्ती । ( पावह आराहणाचउक्कं च ) प्राप्नोति लभते, कि तत् ? आराधनाचतुष्कं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामाराधकत्वं प्राप्नोति । (भावरहिदो य मुणिवर ) भावरहितश्च जिनसम्यक्त्वातीतो वेषधारी मुनिः हे मुनिवर ! हे गाथार्ष-हे मुनिवर ! भाव-सहित श्रेष्ठ मुनि चार आराधनाओं को प्राप्त करता है और भाव रहित मुनि चिरकाल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करता है ।।९७॥ विशेषार्थ-भावका अर्थ जिनसम्यक्त्व अर्थात् जिनेन्द्र देवकी अटूट श्रद्धा है। जो मुनि भाव-जिनसम्यक्त्वसे सहित होता है वह श्रीमान्भगवान्-अर्हन्त सर्वज्ञ-वीतराग देवके चरण कमलोंका भ्रमर होता है। अथवा भावका अर्थ शुद्ध बुद्धक-स्वभाव वाला आत्मा है उस आत्मासे जो सहित है वह भाव सहित कहलाता है। यहाँ 'भाव सहिदो य (भावसहितश्च ) इस पाठ में जो 'च' दिया है उससे यह अर्थ सूचित होता है कि भाव सहित मुनि, मुनिके लिये ही हितकारी नहीं है किन्तु अन्य भव्य जीवों के लिये भी हितकारी है, क्योंकि वह तीन लोकके प्राणियों को तारने में समर्थ होता है । जो मुनि ऊपर कहे हुए भाव जिनसम्यक्त्व अथवा शुद्ध बुद्धक-स्वभाव आत्मा से सहित है अर्थात् व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व से युक्त है वह मुनीन-मुनियों का इन स्वामी है, मुनियों का चक्रवर्ती है । ऐसा श्रेष्ठ मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, इन चार आराधनाओं को प्राप्त होता है तथा १. स्वः शुकः म०। २. मुनिरन्येषा म०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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