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________________ षट्प्राभूते [५. ९५अस्या विवरणं-पृथ्वीकायिकसूक्ष्म-बादर-पर्याप्त अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त ६ । तथा अप् ६ । तेज ६ । वायु ६ एवं २४ । वनस्पतिकायिकभेद २ प्रत्येक साधारण साधारणभेद १२ नित्यनिगोदसूक्ष्म-बादर-पर्याप्त अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त ६ तथा इतर-निगोद-सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ६ एवं १२ । प्रत्येक भेद ६ सप्रतिष्ठितप्रत्येकवाटिकादौ, अप्रतिष्ठिताः स्वयमेव ते च पर्याप्त-अपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्त । एवं थावरवेयालीसा । सुरभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । नारकभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त। पंचेन्द्रियतिर्यग्भेद ३४। जलचरभेद २ गर्भज-सम्मूर्च्छन गर्भजभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । सम्मूर्च्छनभेद पर्याप्त-अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ५। तथा नभश्चर ५ । स्थलचर ५ । एवं १५ संज्ञिभेदाः । तथा १५ असंज्ञि - इस गाथाका स्पष्ट विवरण इस प्रकार है-... पृथिवीकायिक जीवोंके सक्ष्म और वादरकी अपेक्षा दो भेद हैं और उनके प्रत्येक के पर्याप्त अपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षा तीन-तीन भेद हैं, इस तरह पृथिवीकायिक के छह भेद हुए। इसी प्रकार जलकायिक अग्नि कायिक और वायु-कायिक के प्रत्येक के छह-छह भेद हुए | चारोंके मिलाकर चौबीस भेद हुए। वनस्पतिकायिक मलमें प्रत्येक और साधारण इस प्रकार दो भेद हैं । इनमें साधारण वनस्पतिके बारह भेद होते हैं जो इस प्रकार हैं-साधारण वनस्पतिके नित्य निगोद और इतर निगोदके भेदसे मूल में दो भेद है, फिर दोनों के सूक्ष्म और बादर को अपेक्षा दो-दो भेद हैं, इस तरह चार भेद हुए फिर चारों के पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षा तीन भेद हैं इसप्रकार साधारण वनस्पतिके बारह भेद हुए। प्रत्येक वनस्पतिके सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक को अपेक्षा मूल में दो भेद हैं, फिर दोनों के पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा तीन-तोन भेद हैं, इस तरह छह भेद होते हैं । इस प्रकार पृथिवी आदि के चार के २४, साधारण वनस्पति के १२ और प्रत्येक वनस्पति के ६ सब मिलाकर एकेन्द्रिय के वियालीस जीवसमास हैं। देवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा दो जीवसमास हैं। नारकियोंके भी पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा दो जीव-समास हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के चौंतीस भेद हैं जो इस प्रकार हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके मूलमें सैनी और असैनो की अपेक्षा दो भेद हैं उनमें दोनों के जलचर स्थलचर और नभश्चर की अपेक्षा तोन-तीन भेद हैं और तीनों गर्भज तथा सम्मूर्च्छनको अपेक्षा दो-दो भेद हैं। इनमें से गर्भज के पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो-दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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