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________________ ५. ५१] भावप्रामृतम् सुना रुषानुयातोऽतिभीरुः पलायमानो मनुष्यत्वतरुवरान्तरहितस्तन्मूले कुलगोत्रादि विचित्र बल्लीसमाकुले जन्मकूपे पतित आयुर्वल्लीलग्नकायः सितासितदिवसानेकमूषिकोच्छिद्यमानतद्वल्लीकः सप्तनरकप्रसारितमुखसप्तसर्पनिकटः । तवृक्षेष्टार्थपुष्पोत्पन्नसुखमधुरसलालसस्तद्ग्रहणोत्थापितसमग्रा पन्मक्षिकाभक्षितः तत्सेवासुखं ज्ञात्वा सर्वोऽपि विषयलंपटो दुबुद्धिर्जीवति तथा धीमान् दुर्वहं तपोऽकुर्वन्नत्यक्तसंगः कथं वर्तते ? इति तस्य वचनमाकर्ण्य माता कन्याश्चौरश्च संसारशरीरभोगेष्वतिविरायत्वं यास्यन्ति । तदान्धकारं निराकृत्य कोकं प्रियया कुमार दोक्षयेव योजयन् निजकरः समाक्रम्य कुमारस्य मनःकमलमिव रंजयन्नुदयाद्रेः शिखरे रविस्तपसि कुमार धायको नियुक्त किया। सो वह धाय गुप्त रूपसे उसे ले आई । महारानी, जिस तरह राजा को पता न चल सके उस तरह एकान्त में उसके साथ रमण करती हुई रहने लगी। बहुत दिन बाद अन्तःपुरके रक्षकों को इस बातका पता चल गया और उन्होंने राजासे कह भी दिया। रानी की सेविकाएं उपपति को अलग करने का उपाय नहीं जान सकी इसलिये उन्होंने उस दुष्टको लेजाकर अशौच गृह में गिरा दिया। वह वहाँ अत्यन्त दुर्गन्ध तथा उसके कीड़ों से दुःख को प्राप्त हुआ। पापके उदय से उसने यहीं पर नरक का निवास प्राप्त कर लिया। इसी के समान अल्प सुख की इच्छा करने वाले जीवको अत्यन्त भयंकर नरक आदि में बहुत भारी दुःख प्राप्त होते हैं। • कुमार फिर भी एक कथा कहेगा जिसके सुनने से सत्पुरुषों को शोघ्र ही संसार से वैराग्य हो जाता है- यह जीव एक पथिक है, संसार रूपो अटवो में घूम रहा है, घात करनेका इच्छुक मृत्यु रूपी मत्त हाथी क्रोधसे उसका पीछा कर रहा है, अत्यन्त भयभीत हो भागता हुआ वह मनुष्य पर्याय रूपी वृक्ष पर चढ़ गया, उस वृक्षके नीचे कुल गोत्र आदि नाना प्रकारको लताओं से व्याप्त संसार रूपी कुआँ है उसी कुएं में वह गिर गया, परन्तु आयु रूपी लता में उसका शरीर संलग्न होकर रह गया, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के दिन रूपी अनेक चूहे उस लता को काट रहे हैं, उस संसार रूप कुएँ में सात नरक रूपी सात सर्प मुख फैलाकर बैठे हुए हैं, उस वृक्षके ऊपर इष्ट अर्थ रूपी पुष्प से उत्पन्न सुख रूपी मधु लगा हुआ है उसके रसको लालसा उस पथिक को लग रही है, सूख रूपी मधको प्राप्त करने के कारण उड़ी हुई अनेक आपत्ति रूप मधु मक्खियां उसे काट रही हैं फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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