SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५. ५१] भावप्राभृतम् ३५९ पिण्डं मुक्त्वा संक्रीडमानं मीनं भक्षितु जले पपात । जलवेगवहत्प्रवाहेण प्रेर्यमाणो मृतः । मोनस्तु दीर्घायुजलमध्ये सुखं तस्थौ। एवं शृगालवदतिलुब्धो मरिष्यति (५)। एवं मुख्यतस्करवाचं श्रुत्वा प्रत्यासन्नमुक्तिः कुमारो भणिष्यति-कश्चिनिद्रालुको वणिक् निद्रासुखरतः पराध्यरत्नगर्भनिजकच्छपुटः सुप्तः । चौरैरपहृते माणिक्यसचये तदुःखेन दुर्मृतिमृति प्राप। तथायं जीवो विषयाल्पसुखासक्तो रागचौरकैर्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नेष्वपहृतेषु निर्मूलं नश्यति (६) । दस्युस्थ गदिष्यतिस्वमातुलानी-दुर्वचनकोपेन काचित्कन्या तरुतले सर्वाभरणमण्डिता स्थिता । मरणोपायमजानती व्याकुलमनाः सुवर्णहारकेण पापिना मार्दङ्गिकेण दृष्टा । तदाभरणानि जिघृक्षणा तस्या 'लम्बनोपायो दर्शयामासे । स्वकीयं मर्दलं वृक्षतले समुद्भ संस्थापयांबभूव । तस्या गलपाशदानशिक्षणार्थ मदलोपरि पादौ धृत्वा गले पाशं चकार । केनापि कारणेन मर्दले पतिते मार्दङ्गिकस्य गले पाशो लग्नस्तना - www.mmmmmmmmmmm वह अच्छी तरह ग्रहण कर सकता था परन्तु वह मूर्ख उसे उठाये बिना किसी कारण से वनको चला गया । पीछे लौटकर उस स्थान पर आया तो उसे वह रत्नराशि क्या मिल सकती थी? इसी प्रकार यह जीव अत्यन्त दुर्लभ गुण रूपी मणियोंके समूह को यदि अभी ग्रहण नहीं करता है तो संसार समुद्र में फिर कैसे प्राप्त कर सकता है ? तदनन्तर चोर अन्याय को सूचित करने वाली एक दूसरी कथा कहेगा- . (५) कोई एक शृगाल मुख में स्थित मांस-पिण्डको छोड़कर क्रीड़ा करती हुई मछली को खानेके लिये पानी में गिर पड़ा और जलके वेगसे बहते हुए प्रवाह से प्रेरित होता हुआ मर गया परन्तु दीर्घ आयु वाली मछली पानीके मध्य में सुख से रही आई। इस प्रकार अतिशय लोभी तुमःशृगालके समान मरोगे। ___ इस प्रकार मुख्य चोरके वचन सुन अत्यन्त निकट मुक्तिको प्राप्त करने वाला जम्बू कुमार कहेगा ' (६) निद्रा सुखमें निमग्न रहनेवाला कोई एक निद्रालु वणिक् था वह अपनी कांछमें श्रेष्ठ मणियोंको छिपा कर सो गया। परन्तु चोरोंने उसका मणियों का समूह चुरा लिया उसके दुःखसे कुमरण को प्राप्त होता १. कम्बमोपाय नयाबास ०१. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy