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________________ षट्त्राभूते [ ५.५१ मृगलोचनावलोकनीया विनयश्रीः, तस्यैव वैश्रवणदत्तस्य धनश्रियाः सुतारूपीः एताश्चतस्त्रा विधिपूर्वकं परिणीय सोधागारे समीचीनरत्नदोपदीप्तिर्भिर्निरस्तान्धकारे नानारत्नसमीचीनचूर्णरंगवल्लीसंशोभिते विचित्र पुष्पोपहारसहिते जगतीतले स्थास्यति । एतस्य माता अयं मे सुतो रागेण प्रेरितः स्मितहासकटाक्षेक्षणादिना विकृति भजन् किं भवेन्न वा भवेदित्यात्मानं तिरोधाय पश्यन्ती स्थास्यति । तस्मिन्नवसरे सुरम्यदेशपोदनापुरेशविद्युद्राजविमलवत्योः सुतः पापिष्ठानां धुरि स्मर्यो दुरात्मनां वन्दनीयोऽमुणवानुत्सुकश्च तीक्ष्णो विद्यत्प्रभनामा केनापि कारणेन निजज्येष्ठ भ्रात्रे कुपित्वा पंचशतसुभटैनिर्गतो विद्युच्चोरनामानमात्मानं कृत्वा चौरशास्त्रोपदेशेन मंत्रतंत्रविधानादृदृश्यशरीरत्वकपाटीद्घाटनादिकं जानन्नर्हद्दास गृहाभ्यन्तररनधानादिकं चोरयितु ं प्रविश्य जिनदासीनृपनिद्रां विलोक्ययानं निवेद्य किमर्थं विनिद्रा त्वमेवमिति प्रक्ष्यति ? मम एक एव पुत्र प्रातरेवाहं तपोवनं गमिष्यामीति संकल्पास्थिती वर्त्तते तेनाहं शोकिनी सती जागम । त्वं बुद्धिमान् दृश्यसे यदि त्वमियमाग्रहादुपायैर्वारयसि तत्त्वभीप्सितं धनं सर्वमहं दास्यामीति वदिष्यति । सोऽपि तत्प्रतिपद्येवं सम्पन्नभोगोऽयं किल 'विरंस्यति, इह धनमाहतु प्रविष्टं मां विगिति स्वनिन्दनं कुर्वन्निःशंकं तदन्तिकं प्राप्य तं तासां कन्यकानां साध्यतयातिष्ठितं कुमारं प्रसरत्सद्बुद्धि पंजरगतं पक्षिणमिव, ३५६ समय वह विद्युच्चोर जम्बूकुमार के पिता अहंद्दास सेठ के घर के भीतर रत्न तथा धन आदि को चुराने के लिये घुसेगा । उस समय जम्बू कुमारकी माता जिन दासी जाग रही होंगी - पुत्रके वैराग्यकी बात सुनकर उसे निद्रा नहीं आवेगी । उसे जागती देख विद्युच्चोर पूछेगा कि तू इस तरह क्यों जाग रही है ? जिनदासी कहेगी कि 'मेरे एक ही पुत्र है और वह भी 'मैं प्रातःकाल ही तपोवन को जाऊँगा' ऐसा संकल्प करके बैठा है, इसी कारण शोकसे युक्त हो मैं जाग रही हूँ। तुम बुद्धिमान् दिखाई देते हो यदि तुम इसे उपायों द्वारा इस हठसे निवृत्त कर सको तो मैं तुम्हारा मन चाहा सब धन दे दूंगी' । जिनदासी की उक्त बात को सुनकर विद्युच्चोर विचार करेगा कि यह इस तरह भोगों से सम्पन्न कुमार तो विरक्त होगा और मैं यहाँ धन हरनेके लिये प्रविष्ट हुआ है, मुझे धिक्कार हो, इस प्रकार अपनो निन्दा करता हुआ वह निःशङ्क भाव से जम्बूकुमार के पास पहुँचेगा। उन १. किल विसति घ० । २. क प्रतीकेापचितायां मध्ये तपोऽचिष्ठितं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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