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________________ -५. ४६ ] लब्धजयलाभः सर्वैरपि संभावितोत्साहः स्थिरतरपादनिवेशो वज्रसारास्थिबन्धो भुजागंलापरविबाघी मुष्टिसंमायिमध्यप्रदेशः कृतानेककरणसमूहो लघुसंचरंगप्रवीणोऽतिकठिनविस्तीर्णवक्षःस्थलो बृहन्नीलपर्वतोतुङ्गो दर्पप्रवृद्धित्रिगुणितनिजमूर्तिज्वलितवलितनेत्रत्व ददुर्निरीक्ष्यसांमुख्योऽतिशयेनाशनिपातवदुग्रो नन्दनन्दनः स्थितः सन् यमस्याप्युच्चैर्भयमसहनीयमुत्पादयन् वरमखिलं शौयं मूर्तिमन्मिलितमिव . समस्तं रंहो मनुष्याकारमागतमिव सिंहाकारः सहसाकृतसिहध्वनिः रंगादंगणमिव नभोङ्गणमलंघत पुनराकाशादशनिवदवनिमापत्य आत्मपादपाताभिघातचलिताचलसन्धिबन्धो मुहूर्बल्गन् परिसरंश्च प्रतिज् भमाणसदूररंजितभुजदण्डी समुदग्री क्रुद्धः भावप्राभृतम् ३४३ इधर जिनके मनका प्रसार बहुत भारी था, जो वीर थे, बड़े-बड़े मल्लों में अग्रेसर थे, जो प्रतिद्वन्द्वी मल्लसे युद्ध में विजय को पहले ही प्राप्त हुए के समान देदीप्यमान तेजसे युक्त हो रहे थे तथा ऐसे जान पड़ते थे मानों 'आकाश से उतर कर सूर्य हो मल्लपनेको प्राप्त हुआ हो 'मैं जीतूंगा' इस भावना से जिनका पराक्रम - सम्बन्धी अद्वितीय उत्साह खूब वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, जो उत्तम भाग्य की सराहना कर रहे थे, जिन्होंने वस्त्र को अच्छा कसकर पहिना था, बालोंको अच्छी तरह बाँध रक्खा था, जिनका शरीर स्वभाव से ही चिकना था, जो दाढ़ी-मूंछ से रहित थे, जिनको चित्त वृत्ति अत्यन्त प्रसिद्ध थी, अद्वितीय गोपमल्लों के साथ बाहुयुद्ध का निरन्तर अभ्यास करनेके कारण जिन्हें पूर्ण विजय प्राप्त होने वाली थी, सभी लोग जिनके उत्साह को सराहना करते थे, जिनके पैर बड़ी मजबूती के साथ रखे जाते थे, जिनकी हड्डियों का बन्धन वज्रके समान सुदृढ़ था, जो अपने बाहुरूपी अर्गलाके द्वारा दूसरों को बाधा पहुंचाते थे, जिनकी कमर मुष्टिमेय अर्थात् अत्यन्त पतली थी, जो अनेक आसनों के समूह को करने वाले थे, जो बड़ी तेजी के साथ रङ्गभूमि के सब ओर संचार करने में प्रवीण थे, जिनका वक्षःस्थल अत्यन्त कठोर Jain Education International और चौड़ा था, जो बड़े भारी नोल पर्वत के समान ऊँचे थे, गर्व की वृद्धि से. जिनका शरीर तिगुना सा जान पड़ता था, देदीप्यमान सबल नेत्रोंसे सहित • होने के कारण जिनके सामनें देखना भी कठिन था, और जो वज्रपात के समान अत्यन्त उग्र थे ऐसे नन्दपुत्र श्रीकृष्ण रङ्गभूमिके मध्य में खड़े हुए। उस समय वे यमराजको भो बहुत भारी असहनीय भय उत्पन्न कर रहे थे। ऐसा जान पड़ता था मानों समस्त उत्कृष्ट शूरवीरता ही मूर्तिधारी होकर इकट्ठी आ मिली हो, अथवा समस्त वेग ही मनुष्य के आकार को प्राप्त हुआ हो, वे सिंह के आकार थे और सिंह के समान For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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