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________________ ३३४ षट्प्राभृते [ ५. ४६ बन्धुतां सार्द्रा न कुर्यात् । तौ विस्मितौ यमुनां व्यतिक्रम्य बालिकामुद्धृत्यागच्छन्तं नन्दगोपति ददृशतुः । तं दृष्ट्वा तावूचतुः - भद्र ! त्वमसहायो रात्रावत्र किमित्यागतः । स प्रणम्योवाच — मम प्रिया युष्मत्प्रचारिका पुत्रार्थं गन्धादिभिः पूजित्वा देवतां याचितवती - देवि ! पुत्रं मे देहीति । 'साद्य रात्री पुत्रीं लेभे । सोवाचेति स्त्र्यपत्यं ताभ्य एव देहि । तस्याः सशोकाया वचनादिदं स्त्र्यपत्यं देवताभ्यो दातु ं मम प्रयासोऽयं स्वामिन्निति जगाद् । तद्वचनं तौ श्रुत्वाऽस्मत्कार्यं सिद्धिमिति प्रहृष्य तमूचतुः — त्वमस्माकमभीष्टस्तेन तव गुह्यं कथ्यते, अयं बालश्चक्री भविष्यति त्वं पालयेति । इयं तु बालिकाऽस्मभ्यं दीयतामिति । तां गृहीत्वा गूढतया पुरं गतौ । नन्दगोपस्तु गृहं गत्वा प्रियां प्राह-प्रिये ! देवता तुष्टा महापुण्यं पुत्रं तुभ्यं ददुः प्रसन्ना इति प्रोच्य तं पुत्रं तस्यै समर्पयामास । कंसस्तु देवकी पुत्री प्रसूतवतीति श्रुत्वा तत्र गत्वा तां सुतां भग्ननासां चकार । मात्रा तु सा बालिका भूमिगेहे वर्धिता प्रौढयोवना नासाविकृति विलोक्य आर्थिकापार्श्वे कर दी । माताने उस पुत्री का भूमि-गृह-तलघर जैसे गुप्त स्थानमें उसका पालनपोषण किया। जब वह प्रोढयौवनवती हुई तो नासा की विकृतिको देख उसने शोकवश आर्यिका के पास उत्तम व्रतों से युक्त दीक्षा ग्रहण कर ली । तथा विन्ध्य पर्वत पर स्थान का योग लेकर अर्थात् यहाँ से अन्यत्र न जाऊँगी ऐसा नियम लेकर रहने लगी। कुछ वनवासी लोग 'यह देवता है' ऐसा समझ उसकी पूजा कर गये ही थे कि रात्रि में व्याघ्रने उसे खा लिया तथा मरकर वह स्वर्गलोक गई । तदनन्तर दूसरे दिन उन वनवासियोने उसके हाथकी तीन अंगुलियां देखीं। उस देशके अविवेकी निवासियोंने उन तीन अँगुलियों को दूध तथा केशर आदि से पूजा कर उस आर्या को विन्ध्यवासिनी देवी रूपसे प्रमाणिक किया । तदनन्तर उस नगर में बड़े-बड़े उत्पात होने लगे । उन्हें देख कंसने वरुण से पूछा कि इनका फल क्या है ? वह बोला कि तुम्हारा बड़ा भारी शत्रु उत्पन्न हो चुका है । निमित्त ज्ञानी के वचन सुनकर राजा कंस चिन्ता - निमग्न हो गया । उसी समय पूर्वोक्त देवताओं ने आकर पूछा कि क्या कार्य करने के योग्य है ? कंसने कहा - मेरा पापी शत्रु कहीं उत्पन्न हो चुका है सो उसे खोजकर तुम लोग मार डालो। यह सुनकर सातों ही देवता 'तथास्तु' कहकर चल दिये। उन देवताओं में एक पूतना नामकी देवी थी । वह विभङ्गावधिज्ञान से वासुदेवको जान गई तथा उसे मारने के १. यशोदा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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