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________________ -५.३८ ] भावप्राभृतम् २९१ एकैकाङ गुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानाहि मनुष्यानाम् । अवशेषे च शरीरे रोगा भण कियन्तो भणिताः ||३७|| णवदी होंत जाण ( एक्केक्कं गुलिवाही ) एकंकांगुली व्याघयो रोगाः । माणं ) षण्णवतिर्भवन्ति हे जीव ! त्वं जानीहि मनुजानां मनुष्याणां शरीरे । ( अवसेसे य सरीरे ) अवशेषे च शरीरे एकाङगुले रुद्धरितादवशिष्टे शरीरे । ( रोया भण - कित्तिया भणिया ) रोगा व्याधयस्त्वं भण कथय कियन्तो भणिता इति । ते रोया विय सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किंवा बहुएहि लविएहि ॥ ३८ ॥ तेरोगा अपि च सकलाः सोढा त्वया परवशेन पूर्वभवे । एवं सहसे महायशः ! कि वा बहुभिः लपितैः ॥ ( ते रोया वि य सयला. ) ते रोगाः सकला अपि सर्वेऽपि । ( सहिया ते परवसेण पुन्वभवे ) सोढास्त्वया परवशेन कर्माधीनतया पूर्वभवे पूर्वजन्मान्तरसमूदे । ( एवं सहसि महाजस ) एवममुनाप्रकारेण त्वं सहसेऽनुभवसि हे महायशः ! | ( कि वा बहुए हि लविएहि ) कि वा बहुभिर्लपितैर्जल्पितैः । विशेषार्थ - हे आत्मन् ! मनुष्योंका शरीर रोगोंका घर है उसके एक एक अंगुल में छियानवे छियानवे रोग होते हैं, तब समस्त शरीरमें कितने रोग होंगे, इसका अनुमान तू स्वयं लगा ||३७|| गाथार्थ - हे महायशस्वी मुनि ! तूने वे होकर सहन किये हैं और इसी प्रकार इस • कहने से क्या लाभ है ॥ ३८ ॥ सब रोग पर भवमें पर-वश समय भी सह रहा है, अधिक विशेषार्थ - यहाँ आचार्य इस जीवको 'महाजस' - महायशके धारक पद से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे जीव ! तू तो महायशका धारक आदि गुणोंका धारक है फिर क्यों कर्मके चक्र में फँस रहा है। पूर्व भवमें तूने कर्मों के अधीन हो पूर्वोक्त अनेक रोगोंको सहन किया है और वर्तमानमें भी सहन कर रहा है। अधिक क्या कहें ? इतना निश्चय कर कि यदि भावकी ओर दृष्टि न दो सुःखोंको सहन करना पड़ेगा ।। ३८ ॥ तो इसी तरह भविष्य में भी अनेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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