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________________ २६९ -५. २४] भावप्राभृतम् (तिहयणसलिलं सयलं ) त्रिभुवनसलिलं सकलं । पीयं पीतं त्वया। (तिहाए ) तृष्णया । ( पीडिएण ) पीडितेनावगाढेन ! (तुमे ) त्वया भवता । "तुमइ तुमाइ तुमे तुमए तुमं तु इ तु ए ते दि दे भे टया" इति व्याकरणसूत्रेण टावचनेन सह युष्मदः तुमे आदेशः । ( तो वि ) तदपि । ( ण ) नैव । ( तिहाछेओ) तृष्णाच्छेदः ( जाओ ) जातः । (चितेह भवमहणं ) हे जीव ! त्वं चिन्तय अन्वेषस्व भवस्य संसारस्य मथनं विनाशनं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमिति भावार्थः । गहिउझियाई मुणिवर कलेवराई तुमे अणेयाई। ताणं णत्थि पमाणं अणन्तभवसायरे धीर ॥२४॥ गृहीतोज्झितानि मुनिवर ! कलेवराणि त्वया अनेकानि । तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभावसागरे धीर ! ॥२४॥ (गहिउज्झियाई) गृहीतोज्झितानि । ( मुणिवर ) हे मुनिवर मुनिश्रेष्ठ ! ( कलेवराई) कलेवराणि शरीराणि । (तुमे अणेयाइ) त्वयाऽनेकान्यनन्तानि । पानो पो डाला तो भो प्यास का नाश नहीं हुआ अतः संसार को नष्ट करने वाले रत्नत्रय का चिन्तवन कर ॥ २३ ॥ विशेषार्थ हे आत्मन् ! तूने स्वरूप से भ्रष्ट होकर अनन्त भव धारण किये हैं और उन भवोंमें तृष्णा-प्यास से पीडित होकर यद्यपि तने तोन लोकका समस्त पानी पिया है तो भी तेरो तृष्णा-प्यासका नाश नहीं हुआ। यहाँ श्लेषसे तृष्णाका दूसरा अर्थ अप्राप्त वस्तु की इच्छा भी है तो उस तृष्णासे पीड़ित होकर तूने तीन लोककी समस्त वस्तुओंको ग्रहण किया पर उनसे तेरी तृष्णा शान्त नहीं हुई, अब ऐसा प्रयत्ल कर कि जिससे भव धारण हो न करना पड़े। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भवको संसारको नष्ट करने वाले हैं अतः इन्हींका चिन्तवन कर । गाथा में आया हुआ 'तुमे' शब्द युष्मद् शब्दके तृतीया का एक वचन है । टाप्रत्यय के साथ साथ युष्मद् शब्दके स्थान में 'तुमइ तुमाइ' आदि प्राकृत व्याकरण के सूत्रसे 'तुमे' आदेश हुआ है ।। २३ ॥ ____ गाथार्य हे धोर वोर ! मुनिवर ! इस अनन्त संसार सागरके बीच तूने जिन अनेक शरीरों को ग्रहण कर कर छोड़ा है उनका प्रमाण नहीं है ।। २४ ।। विशेषार्थ-जो मुनियों में श्रेष्ठ है उसे मुनिवर कहते हैं तथा जो . ध्येय-ध्यान करने योग्य पदार्थकी ओर बुद्धिको प्रेरित करे उसे धीर कहते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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