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________________ -५.२१ ] भावप्राभृतम् २६७ पूर्वं छिन्नानि पश्चादुज्झितानि केशनखरनालास्थीनि । ( पुजेइ जइ को विजए ) पुंजयति राशीकरोति यदि चेत् कोऽपि शक्रसन्तानागतः कश्चिद्देवः | ( हवदि य गिरिसमधिया रासी) भवति च गिरेमंरोरपि समधिका राशिः केशादीनां प्रत्येकमनन्तमेरुसमा राशयो भवन्तीति भावार्थः । जलथलसिहिपवणंबरगिरिसरिरिकुरुवणाई सव्वत्तो । वसिओसि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ॥ २१ ॥ जलस्थलशिखिपवनांवर गिरिसरिगे कुरुवनादिषु सर्वत्र । उषितोसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्येनात्मवशः ||२ ॥ हे जीव ! हे चेतनानाथ ! ( जल ) त्वं जले उदके उषितोऽपि निवासं चकर्थ । ( थल ) थले भूम्यां । ( सिहि ) शिखिनि हुताशने । ( पवण ) पवने झंझामारु ( अंबर ) अम्बरे विहायसि । ( गिरि) पर्वते । ( सरि ) सरिति नद्यां दरि दर्यां गुहायां । ( कुरुवणाइ ) देवकुरूतरकुरूत्तमभोगभूमि कल्पवृक्षवने । आदिशब्दाद्भरत हैमवत हरिविदेह रम्यक हैरण्यवत्तैरावतादयो लभ्यन्ते । ( सव्वत्तो ) कि बहुना सर्वतः सर्वत्र । ( वसिओसि चिरं कालं ) उषितोऽसि चिरं दीर्घमनन्तं करते हुए तूने इतने अधिक जन्म धारण किये हैं और उनमें केश, नख, नाभिका नाल तथा हड्डियोंको इतना अधिक क्षुरा, नख-भञ्जिका तथा क्षुरी आदिसे काट काट कर छोड़ा है - जहाँ तहाँ फेंका है यदि इन्द्रकी आज्ञा से आया हुआ कोई देव उन्हें इकट्ठा करे तो केश आदिकी वह राशि सुमेरु पर्वत से भी अधिक अर्थात् अनन्त सुमेरु पर्वतों के बराबर हो सकती है ॥२०॥ गाथार्थ - हे जीव ! तूने अनात्म-वश होकर - आत्मस्वभावसे भिन्न वस्तुओंके वशीभूत होकर तीनों लोकोंके मध्य जल, स्थल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, नदी, गुफा तथा देवकुरु उत्तरकुरु आदि स्थानों में सब जगह चिरकाल तक निवास किया है ।। २१ ।। विशेषार्थ - हे चेतनानाथ ! तूने अनात्मवश होकर निज शुद्ध बुद्ध रूप एक स्वभाव से युक्त चैतन्यचमत्कार मात्र टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव वाले आत्म-तत्वको भावना अथवा जिनेन्द्र देवके द्वारा प्रतिपादित सम्यक्त्वकी भावना से भ्रष्ट होकर जलमें, स्थलमें, अग्निमें, वायुमें, आकाश में, पर्वत में, नदीमें, गुफामें, देव कुरु उत्तर कुरु नामक उत्तम भोगभूमिसम्बन्धी कल्पवृक्षोंके वन में तथा आदि शब्दसे भरत, हैमवत, हरि, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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