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________________ २६४ षट्प्राभृते [ ५. १६-१७ चविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्यो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अवाराओ ॥१६॥ चतुविधविक्रथासक्तः मदमत्तः अशुभभाव प्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तोऽसि अनेकवारान् ||१६|| ( चउविहविकहासत्तो ) चतुर्विधविकथासक्तः आहारकथा - स्त्रीकथा - राजकथा - चौरकथालक्षणासु विकथासु चतुर्विधास्वासक्त: । ( मयमत्तो ) अष्टमदैर्म तो गर्वितः । ( असुहभाव पडत्थो ) अशुभभावः पापपरिणामः प्रकटः स्फुटी भूतोऽर्थः प्रयोजनं यस्य स अशुभभावप्रकटार्थः । ( होऊण कुदेवत्तं ) अशुभभावप्र कटार्थो भूत्वा कुदेवत्तं कुत्सितदेवत्वं । ( पत्तोसि ) प्राप्तोऽसि । हे जीव ! असुरादिकु देव - गतीरनेकवारान् प्राप्तोऽसि । असुईवाहत्थेहि य कलिमलबहुला हि गब्भव सहीहि । वसिओसि चिरं कालं अणेयजणगीण मुणिपवर ॥१७॥ अशुचिवभत्मासु कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु । उषितोसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर ||१७|| ( असुईवीहत्येहि य) अशुचिषु अपवित्रासु बीभत्सासु च विरूपकासु । ( कलिमलबहुलाहि ) पापबहुलासु । ( गब्भव सहीहि ) गर्भगृहेषु उदरवसतिषु । गाथार्थ - हे जीव ! चार विकथाओं में आसक्त होकर, मदसे मत्त होकर तथा अशुभ भावको ही प्रयोजन बनाकर तू अनेक वार कुदेव - नीच देवकी पर्याय को प्राप्त हुआ || १६ || विशेषार्थ - हे जीव ! तू आहार कथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोर- कथा इन चार प्रकारकी विकथाओं में आसक्त रहा है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठ पदार्थों के मदसे सदा मत्त रहा है । तथा पाप-रूपी परिणामको ही तूने अपना प्रयोजन बनाया है । इसकारण तू कुदेव-असुर आदि नीच देवों की गतिको अनेक वार प्राप्त हुआ है ।। १६ । गाथार्थ - हे मुनिप्रवर ! तूने अनेक माताओंकी अपवित्र, घृणित और पाप रूप मलसे परिपूर्ण गर्भ वसतिकाओं में चिरकाल तक निवास किया है ||१७|| विशेषार्थं - यहाँ आचार्यने मुनियोंको उपदेश देते हुए उन्हें 'मुनिप्रवर' इस सम्बोधनसे सम्बोधित किया है जिसका अर्थ होता है है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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