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________________ २६० षट्प्राभृते [ ५. -१४ ( भाऊण दयिलंगी) तास्त्वं भावयित्वा द्रव्यलिंगः सन् । ( पहीणदेवो दिवे जाओ ) प्रहीणदेवो - हीनदेव : प्रकर्षेण नीचदेवः किल्विषादिको देवः दिवे-स्वर्गे हे जीव ! त्वं जात उत्पन्नः । कास्ताः पंचाशुभभावना इत्याह- कान्दर्पी, कैल्विषी, आसुरी, सांमोही, आभियोगिकी चेति एतासां नामानुसारेणाथंश्चिन्तनीयः । उक्तं च शुभचन्द्रेण योगिना— कन्दर्पी कॅल्विषी चैव भावना चाभियोगिकी | दानवी चापि साम्मोही त्याज्या पंचतयी च सा ॥ १ ॥ पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ । भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ॥ १४॥ पार्श्वस्थ भावना अनादिकाल अनेकवारान् । भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावनाभावबीजैः || १४ || | ( पासत्यभावणाओ ) पार्श्वस्थभावनाः । ( अणाइकालं अणेयवाराओ ) अनादिकालमादिरहितकालपर्यंन्तं अनेकवाराननन्तवारान् । ( भाऊण दुहं पत्तो ) भावयित्वा दुःखं हे जीव ! त्वं प्राप्तवान् । ( कुभावणाभावग्रीएहि ) कुभावनानां करके हे जोव ! तू द्रव्य-लिङ्गी रहा तथा अन्तमें मरकर स्वर्ग में किल्विषक आदि जातिका अत्यन्त नीच देव हुआ । प्रश्न - वे पाँच अशुभ भावनाएँ कौन हैं ? उत्तर - १ कान्दर्पी, २ केल्विषी, ३ आसुरी ४ सांमोही और ५ अभि-योगिकी | इनका अर्थ नामके अनुसार चिन्तन करना चाहिये । शुभचन्द्र मुनिने भी कहा है कान्वर्षी – कन्दर्पी, केल्विषी, आभियोगिकी, दानवो और साम्मोहो ये पाँच प्रकार की भावनाएँ छोड़ने योग्य हैं ॥१- १३॥ गाथार्थ - हे जीव ! तू अनादि कालसे अनेक बार पार्श्वस्थ भावनाओंका चिन्तन कर खोटी भावनाओंके भावरूप बोजोंके द्वारा दुःखको प्राप्त हुआ है || १४ || विशेषार्थ - हे जीव ! तूने अनादिकाल से अनन्तोंबार पार्श्वस्थ भावनाओंकी भावना करके कुभावनाओं खोटो भावनाओंके परिणामरूपी बीजों द्वारा दुःख प्राप्त किया है । १. तासां पञ्चतयी च सा० क० ख० ग० घ० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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