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________________ २५० षट्प्राभूर्ते [५.५० भावरहितो न सिद्ध्यति यद्यपि तपश्चरति कोटकोटी । जन्मान्तराणि बहुशः लम्बितहस्तो गलितवस्त्रः ॥४॥ ( भावरहिओ न सिज्झइ ) भावरहित आत्मस्वरूपभावनारहितो विषयकषायभावनासहितस्तपस्वी अपि न सिद्धयति न सिद्धि प्राप्नोति । ( जइ वि तवं चरs कोडिकोडीओ ) यद्यपि तपश्चरति करोति कोट कोटी ( जम्मंतराई ) जन्मान्तराणि । ( बहुसो ) बहुशोऽनेक कोटीकोटीजन्मान्तराणि । कथंभूतः सन् ( लंबियहत्थो ) अधोमुक्त बाहुद्वय: ( गलियवत्थो ) नग्नमुद्राघरोऽपि सन् । परिणामम्मि असुद्ध गंधे मुच्चेइ बाहरे य जई । बाहिरगंथच्चाओ भावविहणस्स कि कुणइ ॥५॥ परिणामे अशुद्धे ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि । बाह्यग्रन्थत्यागो भावविहीनस्य किं करोति ॥५॥ ( परिणामम्मि असुद्धे ) परिणामे मनोव्यापारेऽशुद्धेऽपि विषयकषायादिभि:-- लिने सति । (गंधे मुच्चे बाहिरे य जई ) ग्रन्थान् मुञ्चति परिग्रहान् वस्त्रादीन् त्यजति यतिजिनलिंगधारी मुनिः । ( बाहिर गंथच्चाओ ) बाह्यग्रन्थत्यागो वस्त्रादित्यजनं । ( भावविहणस्स कि कुणइ ) भावविहीनस्यात्मभावनारहितस्य बहि लटका कर तथा वस्त्रका परित्याग कर तपश्चरण करता है तो भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है ॥ ४ ॥ विशेषार्थ - भाव - आत्म-स्वरूपकी भावना से रहित और विषय कषाय की भावना से सहित साधु तपस्वी होनेपर भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है भले ही वह अनेक कोटी कोटी जन्म तक दोनों भुजाओंको नीचेकी ओर लटका कर तथा नग्न मुद्राका धारी होकर तपश्चरण भी करता रहा हो ॥४॥ गाथार्थ - भावके अशुद्ध रहते हुए यदि कोई बाह्य परिग्रह का त्याग करता है तो उस भावविहीन मनुष्यका वाह्य परिग्रह त्याग क्या कर देगा ? अर्थात् कुछ नहीं ॥५॥ Jain Education International विशेषार्थ --- परिणाम अर्थात् मनोव्यापार के अशुद्ध होनेपर भी विषय कषाय आदि से मलिन रहने पर भी यदि कोई जिन-लिङ्ग धारी मुनि वस्त्रादि बाह्य परिग्रहका त्याग करता है तो उसका वह बाह्य त्याग भाव-विहीन अर्थात् आत्मा की भावना से रहित बहिरात्मा जीवका क्या For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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