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________________ २४० षट्प्राभूते पादचारी विवाहनः । तपोऽयमनुपानत्कः कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणन्यासंमर्हति ॥ २८ ॥ वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात्प्रीणयन्त्यमखिलां सभां ॥ २९ ॥ अनाश्वान्नियताऽहारपारणोऽतप्तयत्तपः 1 तदस्य दिव्यविजयपरमामृततृप्तयः ॥ ३० ॥ त्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाच्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भूतः परमानन्दथु भजेत् ।। ३१ ।। किमत्र हुनोक्तेन यद्यदिष्टं यथाविधं । त्यजेन्मुनिरसंकल्पस्तत्तत् सूतेऽस्य तत्तपः ॥ ३२ ॥ प्राप्तोत्कर्षं तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलं । यतोऽहंज्जाति मूर्त्यादिप्राप्तिः सैषानुवर्णिता ॥ ३३ ॥ जैनेश्वरीं परमाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयेन् । तपस्यां यदुपादत्ते पारिव्राज्यं तदाञ्जसं ॥ ३४ ॥ Jain Education International जो जूता और सवारीका परित्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है वह कमलों के मध्यमें चरण रखने के योग्य होता है अर्थात् अरहन्त अवस्था में देवलोग उसके चरणोंके नीचे कमलोंकी रचना करते हैं ||२८|| चूंकि यह मुनि वचन गुप्तिको धारण कर अथवा हित मित वचन रूप भाषा समितिका पालन कर तपश्चरण में स्थित हुआ था इसलिये ही इसे समस्त सभा को संतुष्ट करने वाली दिव्यध्वनि प्राप्त हुई है ||२९|| इस मुनिने पहले उपवास धारणकर अथवा नियमित आहार और पारणाएं कर तप तपा था इसलिये ही इसे दिव्य तृप्ति, विजय तृप्ति परमतृप्ति और अमृत तृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं ॥ ३० ॥ चूंकि यह मुनि काम जनित सुखको छोड़कर चिर काल तक तपश्चरण में स्थिर रहा था इसलिये ही यह सुखस्वरूप होकर परमानन्द को प्राप्त हुआ है ||३१|| इस विषय में बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? संक्षेपमें इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्प - रहित होकर जिस जिस वस्तुका परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिये वही वही वस्तु उत्पन्न कर देता है ||३२|| जिस तपश्चरण रूपी चिन्तामणिका फल उत्कृष्ट पदकी प्राप्ति आदि मिलता है और जिससे अरहन्त देवकी जाति तथा मूर्ति आदिकी प्राप्ति होती है ऐसी इस पारिव्रज्य नामकी क्रिया का वर्णन किया ||३३|| जो आगम में कही हुई जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको प्रमाण मानता [ ४.१९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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