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________________ -४.२३] बोधप्राभृतम् मइधणु जस्स थिरं सद्गुण बाणा सुअत्थि रयणत्तं । परमत्यबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ॥ २३॥ मतिधनुर्यस्य स्थिरं श्रुतगुणो वाणाः सुसन्ति रत्नत्रयम् । परमार्थवद्धलक्ष्यो नापि स्खलति माक्षमार्गस्य || २३ || मुनेर्धनुश्चापं स्थिरं निश्चलं । ( मइघणु जस्स थिरं ) मतिर्मतिज्ञानं यस्य ( सद्गुण ) श्रुतज्ञानं गुणः प्रत्यञ्चा | ) ( बाणा सुअत्थि रयणत्तं ) वाणाः शराः सुष्ठु अतिशयवन्तः सन्ति विद्यन्ते कि ? रत्नत्रयं भेदाभेदलक्षणं रत्नत्रयं । ( परमत्थबद्धलक्खों) परमार्थे निजात्म-स्वरूपे बद्धलक्ष्यः । निश्चलीकृतात्मस्वरूपो मुनिः । ( ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ) न स्खलति मोक्षमार्गस्य लक्ष्ये इति सम्बन्धः । तथा चोक्तं श्रीवीरनन्दिशिष्येण पद्मनन्दिनाचार्येण - , प्रेरिताः श्रुतगुणेन शेमुषीकामु केण शरवद्द्गादयः । बाह्यवेध्यविषयेऽकृतश्रमाश्चिद्रणे प्रहतकर्मशत्रवः ॥ १ ॥ तथा च सोमदेवस्वामिनापि श्रुतज्ञानस्य गुणस्तुतिः कृता wwww १७३ गाथार्थ - मतिज्ञान जिसका मजबूत धनुष है, श्रुतज्ञान जिसकी डोरी है, रत्नत्रय जिसके वाण हैं और परमार्थ में जिसने निशाना बाँध रक्खा है, ऐसा पुरुष मोक्षमार्ग में नहीं चूकता है || २३ ॥ Jain Education International विशेवार्थ - जिस मुनिके पास मतिज्ञान रूपी निश्चल धनुष है, श्रुतज्ञान रूपी डोरी है, भेदाभेद रत्नत्रय रूप वाण हैं, और निजात्मस्वरूप परमार्थमें जिसने अपना लक्ष्य बाँध रक्खा है, ऐसा मुनि मोक्षमार्गके लक्ष्य में कभी नहीं चूकता। जैसा कि श्री वोरनन्द के शिष्य पद्मनन्द आचार्य ने कहा हैं- प्रेरिता- जिन्होंने श्रुतज्ञान रूपी डोरी से युक्त मतिज्ञान रूपी धनुष के द्वारा वाणों की तरह सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को प्रेरित किया हैचलाया हैं और जो बाह्य पदार्थ रूप निशाने के विषय में अकृतश्रम - अनभ्यस्त हैं अर्थात् निजात्मस्वरूप रूपी लक्ष्य के वेधने में ही जिन्होंने श्रम किया है, ऐसे मुनि आत्मरण में कर्म-रूपी शत्रुओं को नष्ट कर पाते हैं। इस प्रकार सोमदेव स्वामीने भो श्रुतज्ञान के गुणोंकी स्तुति की है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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