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________________ वपनादि अर्थात् जिन्हें श्रुत धर्म व चारित्र धर्म का ज्ञान नहीं है उन्हें धर्म के मूल का ज्ञान करवाना, योग है और जिन्हें ज्ञान है उनका रक्षण और पोषण करना, क्षेम है । प्र.1502 जैन दर्शन के अनुसार कोई किसी को शुभ या अशुभ फल प्रदान नहीं कर सकता है, क्योंकि आगमानुसार 'अप्पा कत्ता विकत्ता य' अर्थात् पुरुष (आत्मा / जीव) स्वयं अपने कर्मों का कर्ता हर्ता और सुख-दुःख का जनक है, फिर तीर्थंकर परमात्मा को अभय दाता, चक्षु दाता, मार्ग दाता आदि क्यों कहा है ? प्रत्येक कार्य की निष्पति में उपादान व निमित्त दो कारण अवश्यमेव होते है । घट बनाने के लिए जैसे - उपादान मृत्तिका (मिट्टी) आवश्यक है, उसी प्रकार कुम्भकार, चाक आदि निमित्त कारण भी अनिवार्य अपेक्षित है। इसी नियमानुसार अपने उत्कर्ष (मोक्ष) का उपादान कारण, स्वयं आत्मा है और निमित्त कारण अरिहंत परमात्मा एवं तत्प्ररूपित धर्म, संघ आदि है । व्यवहार नय की अपेक्षा से निमित्त कारण कार्य का 1 कर्ता होता है । जैसे- कुंभार घट का कर्ता है। इसी प्रकार नमुत्थुणं सूत्र में अरिहंत परमात्मा को 'दाता' कहा है। क्योंकि अरिहंत परमात्मा ही उस मोक्ष पथ के उपदेष्टा है, जिसका अनुसरण करने से जीव सदा काल के लिए अभय बनता है । परमात्मा संयमोपदेष्टा होने से भी अभयदाता है। प्र. 1503 परमात्मा कौनसी विशिष्ट योग्यता से अभयदाता कहलाते है? परमात्मा गुणप्रकर्ष, अचिन्त्य शक्ति, अभयक्ता - परार्थकरण, इन चार विशिष्ट गुणों से निष्पन्न होने के कारण अभयदाता कहलाते है । प्र. 1504 परमात्मा में धर्मनेतृत्व सिद्ध करने वाले कौन से मूल एवं उत्तर उ. हेतु (गुप्त ) है ? उ. 428 Jain Education International For Personal & Private Use Only परिशिष्ट www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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