SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाश होना । ये दो प्रकार का होता है - द्रव्य और भाव । i. द्रव्य स्वाश्रयी अपायपगमातिशय - तीर्थंकर परमात्मा के समस्त प्रकार के रोगों का क्षय हो जाता है, वे सदा स्वस्थ रहते है । ii. भाव स्वाश्रयी अपायपगमातिशय - अठारह प्रकार के आभ्यंतर दोषों का भी सर्वथा नाश हो जाता है। 2. पराश्रयी अपायपगमातिशय - जिससे दूसरे के उपद्रव नाश हो जावें अर्थात् जहाँ तीर्थंकर परमात्मा विचरण करते है, वहाँ प्रत्येक दिशा में 25-25 योजन तक प्रायः रोग, मरी, वैर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि नहीं होते। प्र.1438 तीर्थंकर परमात्मा के क्या चौतीस अतिशय ही होते है ? उ. ननु अतिशयाः चतुस्त्रिंशद् एव ? न, अनंतातिशयत्वात्, तस्य चतुस्त्रिंशत संख्यानं बालावबोधाय । वीतराग स्तव प्र. 5 श्लोक की 9 अवचूर्णि - नहीं, अनंत है। अतिशयों की संख्या चौतीस मात्र बालजीवों को सरलता से समझा सके इस हेतु से रखी है। प्र.1439 सहज अतिशय किसे कहते है ? उ... परमात्मा को जन्म से ही जो अतिशय प्राप्त होते है उन्हें सहज अतिशय ... कहते है । ये चार होते है। प्र.1440 कर्मक्षय अतिशय किसे कहते है और कितने होते है ? उ. परमात्मा के चार घाति कर्मों के क्षय होने पर जिन अतिशयों की प्राप्ति होती है, उन्हें कर्मक्षय अतिशय कहते है । ये ग्यारह होते है। प्र.1441 देवकृत अतिशय कितने होते है ? ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी 405 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy