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________________ सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवए सुद्धो ॥ आ. नि. गाथा 1549 कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यंच सम्बन्धित उपसर्ग उपस्थित होने पर जो साधक उन्हें समभाव पूर्वक सहन करता और कायोत्सर्ग अवस्था में साधक के यदि भक्तिवश चन्दन लगाये या कोई द्वेष पूर्वक वसूले से शरीर का छेदन करे, इन समस्त परिस्थितियों में जीवन रहे अथवा मृत्यु का वरण करना पडे; वह सभी स्थितियों में समता भाव से स्थिर रहता है, उस साधक का कायोत्सर्ग विशुद्ध कहलाता है । आ. नि. गाथा 1548-1549 प्र.1218 षडावश्यक में प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग का विधान क्यों किया ? प्रतिक्रमण में पापों की आलोचना करने के पश्चात् ही चित्त पूर्ण निर्मल बनता है, और निर्मल चित्त के द्वारा ही साधक धर्मध्यान, और शुक्लध्यान में एकाग्र होता है । यदि साधक बिना चित्त शुद्धि किये कायोत्सर्ग करता है तो वह परिणाम स्वरुप उतने फल की प्राप्ति नही कर सकता है जितना प्राप्त होना है। इसलिए षडावश्यक में प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग का विधान कियां है | उ. प्र.1219 मूलाचार और भगवती आराधना के अनुसार कायोत्सर्ग के भेद बताइये ? चार भेद - 1. उत्थित - उत्थित 2. उत्थित - निविष्ट 3. उपविष्ट - उत्थित 4. उपविष्ट - निविष्ट | उ. प्र. 1220 उत्थित - उत्थित कायोत्सर्ग किसे कहते है ? उ. 322 कायोत्सर्ग कर्ता साधक जब द्रव्य (शरीर) व भाव दोनों से उत्थित बीसवाँ कायोत्सर्ग द्वार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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