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________________ वाले साधुओं को दिया जाता है। भ.आ./मू./292/506 3. अपरिमित अपराध करने वाला जो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्ग में स्थित है, उसे दिया जाता है। - आचार सार पू. 63, धवला 13/5,4,26/62/2, राजवार्तिक 9/22/10/622 प्र.1085 अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त किसे कहते है ? कृत अपराध का प्रायश्चित्त न करे, तब तक महाव्रत न देना अर्थात् अपराध करने के पश्चात् जब तक गुरू म. द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त पूरा न करे तब तक उसे महाव्रत न देना, अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहलाता है । इसे परिहार प्रायश्चित्त भी कहते है । प्र.1086 अनवस्थाप्यं प्रायश्चित्त के कितने भेद होते है ? .. उ. दो भेद- 1. आशातना अनवस्थाप्य 2. प्रतिसेवना अनवस्थाप्य । प्र.1087 आशातना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से क्या तात्पर्य है ? उ. तीर्थंकर परमात्मा, प्रवचन, गणधर आदि का तिरस्कार करने वाले को जघन्यतः छ: महिने तक और उत्कृष्ठतः एक वर्ष पर्यन्त दीक्षा नही देना, आशातना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। प्र.1088 अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में तप का क्या परिमाण होता है ? ___अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में परिणाम ऋतु के अनुसार होता है। जघन्य | मध्यम | उत्कृष्ट | उपवास ऋतु उपवास उपवास उपवास 288 अट्ठारहवाँ हेतु द्वार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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