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________________ विमोक्ष अध्ययन __ इस अध्ययन में आठ उद्देशक हैं, यह आठवाँ अध्ययन मूलतः संलेखना व समाधि की विधि की ओर ले जाने वाला है। श्रमण एकत्व भावना से युक्त संलेखना विधि का अनुसरण करता है। उसके अनुसार चलता है और क्रम से पंच महाव्रत का पालन करते हुए अपने धर्म में स्थित होता है। वृत्तिकार ने आगम की दृष्टि को ध्यान में रखकर श्रमणों के लिए एक ही बात दर्शाई है कि अंतिम समय में श्रमण शान्त एवं आत्मकल्याण की कामना करता रहे। उपधान श्रुत __ इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। इन चारों में महाबीर की चर्या, महावीर की शय्या, महावीर की सहिष्णुता व महावीर की तपश्चर्या पर प्रकाश डाला गया है। वृत्तिकार ने उपधान की व्याख्या इस प्रकार की है। “उप-सामीप्येन धीयते-व्यवस्थाप्यत इत्युपधानं"२५ अर्थात् उप का अर्थ समीपता है, जो उसकी समीपता से अपने आपको व्यवस्थित करता है, स्थापित करता है या ज्ञान करता है वह उपधान है। उपधान दो प्रकार का है द्रव्योपधान–शय्यादि, सुख-शयन अर्थरूप आलंबन । भावोपधान-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप है। उपधान की विस्तृत व्याख्या के अनन्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र की उपधानता को धीर एवं वीर का विशेष गुण माना है। जो श्रमण इनका अनुसरण करते हैं, वे धीर हैं एवं वे ही शिव तथा निर्वाण प्राप्त करते हैं। आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध चूलिका के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मूलतः मुनिचर्या को दर्शाया गया है। इसके वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने जो विवरण दिए हैं वे धर्म, दर्शन और नीति के गुणों से परिपूर्ण हैं। इसमें पिण्डैषणा, शय्यैषणा, ईर्यावृत्ति, भाषासमिति, वस्त्रैषणा, उच्चारप्रस्रवण एवं भावना के सूत्रों में आचारप्रधान मार्ग पर चलने वाले श्रमणों की यथास्थिति को व्यक्त किया है और यह भी कथन किया है कि चरण, करण और ज्ञान की वृत्ति होने पर मुक्ति की प्राप्ति होती है, उसके लिए मूलगुण व उत्तरगुण में प्रवृत्ति भी होनी चाहिए। इसी से क्रिया एवं ज्ञान दोनों ही । यथेष्ट मार्ग को दर्शाते हैं ।२६ पिण्डैषणा सूत्र से पूर्व वृत्तिकार ने अहम् को मंगल रूप में ग्रहण किया है और फिर द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भूमिका प्रारम्भ करते हुए निक्षेपार्थ दृष्टि को व्यक्त किया है और यह भी समझाया है कि जीव-पुद्गल, समय, द्रव्य-प्रदेश और पर्याय अनन्त गुण रूप हैं। साधु-साध्वी, भिक्षु-भिक्षुणी, आचारकल्प की भूमिका में स्थित होकर निर्जराप्रेक्षी होते हैं।२७ वे आहार आदि की प्राप्ति के लिए राग-द्वेष से रहित (३०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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