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________________ के पारगामी हैं।१६ जन्म और मरण अरहट्ट-घटीयन् के न्याय पर आधारित है। जिस प्रकार अरहट्ट में रहे हुए घट खाली होते हैं और भरते हैं उसी क्रम से प्राणी जन्म लेते है और मरते हैं। इसे आबीची मरण न्याय कहा जाता है। अनित्य, क्षण, विध्वंसी और नश्वर पदार्थों को जो नित्य मानता है, अहित में हित बुद्धि करता है, यह भी दर्शन की एक प्रक्रिया है। "जेण सिया, तेण णो सिया"१८ जो है वह वैसा नहीं है। यह कथन भी दर्शन तत्त्व पर आधारित है। शीतोष्णीय नामक तृतीय अध्ययन में जो सोता है वह खोता है, जो जागता है वह पाता है यह विवेचन विवेक दर्शन को जागृत करने वाला है। गीता में यही बात कही गई है। ज्ञानी और अज्ञानी का भेद पूर्णिमा और अमावस्या, आकाश और पाताल, हिमालय और परमाणु से भी अधिक है। अज्ञानी लोग भटकते रहते हैं। उन्हें ज्ञान के प्रकाश में अन्धकार ही दिखाई पड़ता है, परन्तु ज्ञानी अन्धकार में भी ज्ञान की कल्पना करता है। जैन दर्शन की दृष्टि व्यापक है। आचारांग सूत्र में आत्मदर्शन की विवेचना करते हुए आत्मा की नित्यता-अनित्यता पर प्रकाश डाला है। उसकी सिद्धि के लिए विविध प्रमाणों का आश्रय लिया है। लोक के स्वरूप को सिद्ध करने के लिए लोक के अस्तित्व का विवेचन किया है। क्रियावादी और अक्रियावादी, कर्मवादी और अज्ञानवादी के विचारों को आचारांग में प्रतिपादित किया गया है। "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। . जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ।२० ___ अर्थात् जो एक को जानता है वह सब को जानता है। जो सब को जानता है वह एक को जानता है। उक्त सूत्र में एकता और अनन्तता का समन्वय प्रस्तुत किया गया है। जैन दर्शन में वस्तु अनन्त धर्मात्मक मानी गई है। दीपक से लगाकर आकाश पर्यन्त सभी पदार्थ अनन्त धर्म से युक्त हैं। इसलिए आचारांग सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को पूर्ण रूप से जान लेने का अर्थ है सारे संसार के पदार्थों को जान लेना। उपनिषदकार एक ब्रह्म-तत्त्व को परम-तत्त्व मानते हैं। जो ब्रह्म तत्त्व को जान लेता है वह विश्व के समस्त अज्ञात पदार्थों को जान लेता है।" ब्रह्म सबका कारण है। इसलिए वह सत् है और उसके जान लेने से समस्त ब्रह्माण्ड का ज्ञान हो जाता है ।२२ "जे एगं नामे से बहुं नामे। जे बहुं नामे से एगं नामे । २३ जो एक को नष्ट करता है वह अनेक को नष्ट करता है और जो अनेक को नष्ट करता है वह एक को नष्ट करता है। इसी तरह सम्यक्त्व अध्ययन में कर्म बन्धन आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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