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________________ ३४ तत्र नामलोकं विवृण्वन्नाह— णामाणि जाणि काणिचि' सहासुहाणि' लोग ि। णामलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ।।४१।। नामानि यानि कानिचित् शुभाशुभानि लोके । नामलोकं विजानीहि अनंतजिनदर्शितं ॥ ४१ ॥ नामानि संज्ञारूपाणि, यानि कानिचिच्छुभान्यशुभानि च शोभनान्यशोभनानि च सन्ति विद्यते जीवलोकेस्मिन् तन्नामलोकमनन्तजिनदर्शितं विजानीह । न विद्यतेऽन्तो विनाशोऽवसानं वा येषां तेऽनन्तास्ते च जिनाश्चानन्तजिनास्तैर्दृष्टो यतः इति ॥४१॥ स्थापनालोकमाह आवश्यक नियुक्तिः ठविदं ठाविदं चावि जं किंचि अत्थि लोग ि। ठवणालोगं वियाणाहि अणंत जिणदेसिदं ।। ४२ ।। स्थितं स्थापितं चापि यत् किंचिदस्ति लोके । स्थापनालोकं विजानीहि अनंतजिनदर्शितं ॥४२॥ ठविदं - स्वतः स्थितमकृत्रिमं । ठाविदं - स्थापितं कृत्रिमं चापि यत्किंचिदस्ति विद्यतेऽस्मिन् लोके तत्सर्वं स्थापनालोकमिति जानीहि, अनन्तजिनदर्शितत्वादिति ॥४२॥ उनमें से अब १. नामलोक का वर्णन करते हैं गाथार्थ — लोक में जो कोई भी शुभ या अशुभ नाम है उनको अन्तरहित (अनंत) जिनेन्द्रदेव ने नामलोक कहा है - ऐसा जानो ॥ ४१ ॥ १. ३. आचारवृत्ति - इस जीव लोक में जो कुछ भी शोभन और अशोभन नाम हैं उनको अनन्त जिनेन्द्र ने नामलोक कहा है । जिनका अन्त अर्थात् विनाश या अवसान नहीं है वे अनन्त कहलाते हैं । ऐसे अनन्त विशेषण से विशिष्ट जिनेश्वरों ने देखा है-इस कारण से नामलोक ऐसा कहा है ॥ ४१ ॥ २. स्थापना - लोक को कहते हैं गाथार्थ—इस लोक में स्थित और स्थापित जो कुछ भी है उसको अनन्त जिनदेवों द्वारा देखा गया — इसे स्थापना लोक समझो ॥४२॥ - क ०णिवि । ब- दिसिदं । Jain Education International २. क अ, ब ०णि य संति लोगंहि । ४. अ, आणंत । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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