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________________ अथवा 'समवृत्ति समवायं, द्रव्य-गुणपर्यायाणां समवृत्ति, द्रव्यं गुणविरहितं नास्ति गुणाश्च द्रव्यविरहिता न सन्ति पर्यायाश्च द्रव्यगुणरहिता न सन्ति । एवंभूतं समवृत्ति समवायं सद्भावरूपं न संवृत्तिरूपं, न कल्पनारूपं, नाप्यविद्यारूपं, स्वतः सिद्धं न समवायद्रव्यबलेन यो जानाति तं सामायिकं जानीहीति सम्बन्धः ॥२१॥ आवश्यक नियुक्तिः सम्यक्त्वचारित्रपूर्वकं सामायिकमाह रागदोसे णिरोहित्ता समदा सव्वकम्मसु । सुत्तेसु य परिणामोसामाइयमुत्तमं जाणे ।। २२।। रागद्वेषौ निरुद्ध्य समता सर्वकर्मसु । सूत्रेषु च परिणामः सामायिकमुत्तमं जानीहि ॥२२॥ रागद्वेषौ निरुध्य सर्वकर्मसु सर्वकर्तव्येषु या समता, सूत्रेषु च द्वादशांगचतुर्दशपूर्वेषु च यः परिणामः श्रद्धानं सामायिकमुत्तमं प्रकृष्टं जानीहि ॥२२॥ निष्पन्नता को अर्थात् पूर्णता को और इनके सद्भाव को, परमार्थ रूप को जानते हैं उन संयतों को तुम उत्तम सामायिक जानो । अथवा द्रव्यों की समवाय सिद्धि को और गुणों तथा पर्यायों के सद्भाव को जो जानते हैं उन्हें सामायिक जानो । I अथवा समवृत्ति- सहवृत्ति अर्थात् साथ-साथ रहने का नाम समवाय है । इस तरह द्रव्य, गुण, पर्यायों की सहवृत्ति को जो जानते हैं उनको तु सामायिक जानो । जैसे द्रव्य गुणों से विरहित नहीं है, और गुणं द्रव्य से विरहित नहीं रहते हैं तथा पर्यायें भी द्रव्य और गुणों से रहित होकर नहीं होती हैं । इस प्रकार का जो सहवृत्ति रूप समवाय है वह सद्भाव रूप है, वह न संवृत्ति रूप है न ही कल्पनारूप और न अविद्यारूप ही है । वह समवाय किसी एक पृथग्भूत समवाय नामक पदार्थ के बल से सिद्ध नहीं है बल्कि स्वतः सिद्ध है ऐसा जो मुनि जानते हैं उनको ही तुम सामायिक जानो, ऐसा ( गाथा के अर्थ का ) सम्बन्ध होता है ॥२१॥ आगे सम्यक्त्व - चारित्र पूर्वक सामायिक कहते हैंगाथार्थ - राग-द्वेष का निरोध करके सभी कार्यों में समता भाव होना, और सूत्रों में परिणाम होना – इनको तुम उत्तम सामायिक जानो ॥२२॥ १.. ३. १९ आचारवृत्ति - राग-द्वेष का निरोध करके सभी कार्यों में जो समता है और द्वादशांग तथा चतुर्दश पूर्वरूप सूत्रों का जो श्रद्धान है, वही प्रकृष्ट सामायिक हैऐसा जानो || २२|| अब आगे तपः पूर्वक सामायिक कहते हैं कसमवायवृत्ति द्र० । क समकं मदा । Jain Education International २. ४. क एवं निर्वृत्तिसमवायं सद्भावरूपं । अ प्रति में 'अ' । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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