SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यकनियुक्तिः नमस्कारपूर्वकं प्रयोजनमाह आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण । आयरियपरंपराए जहागदा आणुपुव्वीए ।।२।। आवश्यकनियुक्तिं वक्ष्ये यथाक्रमं समासेन । . आचार्यपरम्परया यथागतानुपूर्व्या ॥२॥ आवश्यकनियुक्तिं वक्ष्ये । यथाक्रमं क्रममनतिलंघ्य परिपाट्या । समासेन संक्षेपतः । आचार्यपरम्परया यथागतानुपूर्व्या । येन क्रमेणागता पूर्वाचार्यप्रवाहेण संक्षेपतोऽहमपि तेनैव क्रमेण पूर्वागमक्रमं चापरित्यज्य वक्ष्ये कथयिष्यामीति ॥२॥ तावत्पञ्चनमस्कारनियुक्तिमाहरागबोसकसाए य इंदियाणि य पंच य । परिसहे उवसग्गे णासयंतो णमोरिहा ।।३।। रागद्वेषकषायांश्च इंद्रियाणि च पंच च । परीषहान् उपसर्गान् नाशयद्भ्यो नमः अर्हद्भ्यः ॥३॥ रागः स्नेहो रतिरूप: । द्वेषोऽप्रीतिररतिरूप: । कषायाः क्रोधादयः । इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि पंच । परीषहाः क्षुधादयो द्वाविंशति । उपसर्गा देवादिकृत नमस्कारपूर्वक आवश्यकनियुक्ति का प्रयोजन (उद्देश्य) कहते हैं गाथार्थ—मैं (वट्टकेराचार्य) पूर्व प्रचलित आचार्य परम्परा के अनुसार और . आगम के अनुरूप संक्षेप में यथाक्रम से आवश्यक नियुक्ति को कहूँगा ॥२॥ आचारवृत्ति-मैं आवश्यक नियुक्ति का कथन कर रहा हूँ । जिस क्रम से सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गइन छह आवश्यक क्रियाओं का प्रतिपादन आचार्यों और आगम की परम्परा से जिस प्रकार चला आ रहा है, उसी सामायिक आदि क्रम से पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार, पूर्वागम के क्रम का उल्लङ्घन किये बिना ही मैं संक्षेप में कथन करूँगा ॥२॥ गाथार्थ–राग, द्वेष और कषायों, पाँच इन्द्रियों, परीषह और उपसर्गों का नाश करने वाले अर्हन्तों को नमस्कार है ॥३॥ - आचारवृत्ति-राग, स्नेह रति रूप है । द्वेष, अप्रीति अरतिरूप है । क्रोधादि को कषाय कहते हैं । चक्षु आदि इन्द्रियाँ पाँच हैं । क्षुधा, तृषा आदि बाईस परिषह होती हैं । देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा किये गये क्लेश को उपसर्ग कहते हैं । इन राग, द्वेष आदि को नष्ट करके जो स्वयं कृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy