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________________ ( २६ ) हुआ । क्योंकि शिथिलाचारपरक वृत्ति को रोकने हेतु ग्रन्थकार ने पदे-पदे श्रमण को सावधान किया है तथा वैयावृत्य के प्रसंग में आ० भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त के समय हुए उक्त दुर्भिक्ष का मूलाचार में संकेत भी किया है, जिसमें कहा गया है कि दुर्भिक्षादि से प्रभावित और पीड़ित श्रमणों की. वैयावृत्त्य करना चाहिए । आचार्य वट्टकेर ने एकाकी विहार (श्रमण संघ छोड़कर अकेले विचरण करने) का दृढ़ता से निषेध करते हुए कहा है- "सच्छंदजं परोचि य मा मे सत्तवि एगागी" (मूलाचार ४/१५०) अर्थात् स्वछन्द प्रवृत्ति करने वाला कोई भी श्रमण मेरा शत्रु भी हो तो वह भी एकाकी विहार न करे । आचार्य वट्टकेर का समय और उनका सारसमय ग्रन्थ इस सब उल्लेख से ऐसा भी ज्ञात होता है कि पूर्वोक्त दुर्भिक्ष आदि के समय एकाकी विहार की शिथिलाचार-प्रवृत्ति बढ़ रही होगी या आगे बढ़ न जाए, इसीलिए आ० वट्टकेर को एकाकी विहार का इतने कड़े शब्दों में निषेध करना पड़ा । विशेषकर उत्तर भारत में पंचम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाह प्रथम (समय-ईसा पूर्व चतुर्थ सदी का मध्य) के समय दुर्भिक्ष पड़ा । मूलाचार में आचार्य वट्टकेर ने कौटिल्य, आसुरक्ष, महाभारत, रामायण, रक्तपट (बौद्ध), चरक, तापस, परिव्राजक आदि के नामोल्लेख भी किये हैं। इनमें कुछ विद्वानों के अनुसार कौटिल्य का समय ईसा पूर्व तीसरी शती है ।, बौद्धमत के रक्तपट शाखा मात्र की ही सूचना दी है, जबकि बाद में इसकी अनेक शाखा-प्रशाखायें विकसित हुई हैं, अत: लगता है कि आचार्य वट्टकेर के समय तक इनकी अन्य शाखाओं का उदय नहीं हुआ होगा । ____ इस सबसे स्पष्ट है कि आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार की रचना भी ईसा की दूसरी सदी के आसपास की होगी । जैन लक्षणावली (भाग २) की ग्रन्थकारानुक्रमणिका में आचार्य वट्टकेर का समय विक्रम की दूसरी सदी माना है । भाषा, विषय प्रतिपादन शैली आदि ग्रन्थ के अन्त:परीक्षण से भी इनका समय दूसरी सदी के आसपास का ही स्थित होता है । छठी-सातवीं सदी के आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति में तथा आ० वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका में मूलाचार की गाथायें उद्धृत की हैं । __इस प्रकार पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्य वट्टकेर अपने समय के बड़े ही युगप्रवर्तक प्रभावक आचार्य रहे । यद्यपि इस समय उनकी यही 'मूलाचार' एकमात्र कृति उपलब्ध है, किन्तु इस एकमात्र महान् कृति ने ही उन्हें शौरसेनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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