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________________ आवश्यकनियुक्तिः धर्मस्तावत्त्रिप्रकारो भवति । श्रुतधर्मोऽस्तिकायधर्मस्तृतीयश्चारित्रधर्मः । अत्र । पुनः श्रुतधर्मस्तीर्थान्तरं संसारसागरं तरन्ति येन तत्तीर्थमिति ॥५६॥ तीर्थस्य स्वरूपमाहदुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं । । एदेसि दोण्हं पि य पत्तेय-परूवणा होदि ।।५७।। द्विविधं च भवति तीर्थं ज्ञातव्यं द्रव्यभावसंयुक्तं । एतयोः द्वयोरपि प्रत्येकं प्ररूपणा भवति ॥५७|| द्विविधं च भवति तीर्थं द्रव्यसंयुक्तं भावसंयुक्तं चेति । द्रव्यतीर्थमपरमार्थरूपं । भावतीर्थं पुन: परमार्थरूपमन्यापेक्षाभावात् । एतयोर्द्वयोरपि तीर्थयो: प्रत्येकं प्ररूपणा निरूपणा भवति ॥५७॥ द्रव्यतीर्थस्य स्वरूपमाहदाहोपसमण तण्हाछेदो मलपंकपवहणं चेव । तिहिं कारणेहिं जुत्तो तह्या तं दव्वदो तित्थं ।।५८।। दाहोपशमनं तृष्णाछेदः मलपंकप्रवहणं चैव । त्रिभिः कारणै:युक्तं तस्मात् तद्र्व्यत:तीर्थम् ॥५८॥ ___ आचारवृत्ति-श्रुतधर्म, अस्तिकाय धर्म और चारित्रधर्म-इन तीनों में श्रुतधर्म को तीर्थ माना है । जिससे संसार-सागर को तिरते हैं, वह तीर्थ है सो यह श्रुत अर्थात् जिनदेव कथित आगम ही सच्चा तीर्थ है ॥५६॥ तीर्थ का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-द्रव्य और भाव से संयुक्त तीर्थ दो प्रकार का है। इन दोनों में से प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं ॥५७|| आचारवृत्ति-द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीर्थ के दो भेद हैं । द्रव्यतीर्थ तो अपरमार्थभूत है और भावतीर्थ परमार्थभूत है क्योंकि इसमें अन्य की अपेक्षा का अभाव है । इन दोनों का वर्णन करते हैं ||५७॥ द्रव्यतीर्थ का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-दाह को उपशम करना, तृष्णा का नाश करना और मल कीचड़ को धो डालना-इन तीन कारणों से जो युक्त है, वह द्रव्य से तीर्थ है ॥५८॥ १. क तीर्थ सं० । १ क ०र्थस्य० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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