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________________ ५०१ लोम विमुक्ति से लाभ उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार लोभ विजय से सन्तोष भाव की प्राप्ति होती है तथा लोभ वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं होता है, साथ ही पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा भी होती है। कषाय के सन्दर्भ में गुरूवर्या श्री हेमप्रभाश्रीजी म.सा.. ने प्रवचनसारोद्धार में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि अनन्तानुबन्धी कषाय की स्थिति में शेष तीन कषायों की सत्ता अवश्य रहती है । अनन्तानुबन्धी के साथ उनकी परम्परा भी अनन्तभव तक चलती है तो उन्हें भी अनन्तानुबन्धी क्यों नहीं कहा जाता ? इसके समाधान में गुरूवर्या श्री ने लिखा है कि यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय कभी भी प्रत्याख्यानी आदि के अभाव में नहीं होता; अनन्तानुबन्धी के साथ शेष तीन कषायें निश्चित रूप से रहते हैं, तथापि वे अनन्तानुबन्धी इसलिये नहीं कहलाते क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय का अस्तित्व मिथ्यात्व के उदय के बिना नहीं हो सकता; जबकि शेष तीन कषायों के लिये ऐसा कुछ भी नियम नहीं है। इसलिये उन्हें अनन्तानुबन्धी नहीं कहा जा सकता है। नोकषाय नोकषाय शब्द नो + कषाय से मिलकर बना है। जैनदर्शन में नो शब्द का ग्रहण साहचर्य के अर्थ में किया गया है। इस प्रकार क्रोध, मान, माया एवं लोभ - इन चारों कषाय के सहचारी भावों अथवा उन कषायों को उद्दीप्त करने वाली मनोवृत्तियों को नोकषाय कहा जाता है। वस्तुतः नोकषाय कषायों के प्रेरक और सहचारी भाव होते हैं, जिनकी आवेशात्मकता कषायों से कम तीव्र होती है, फिर भी ये कषायों के जनक बन जाते हैं। ३५ उत्तराध्ययनसूत्र २६/७१। ३६ प्रवचनसारोद्धार ५४७ - साध्वी हेमप्रभा श्री। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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