SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४११ अवश्य करने योग्य साधना को आवश्यक कहा गया है। इस ग्रन्थ में आवश्यक के निम्न आठ नाम बतलाये है185_ (१) आवश्यक (२) अवश्यकरणीय (३) ध्रुवनिग्रह (कर्मफल रूप संसार का निग्रह करने वाला) (४) विशोधि (आत्मा की विशुद्धि करने वाला) (५) अध्ययन षट्क वर्ग (६) न्याय (कर्म का अपनयन करने वाला) (७) आराधना (८) मार्ग (मोक्ष का उपाय) विशेषावश्यकभाष्य की टीका के आधार पर विद्वानों ने आवश्यक शब्द के निम्न अनेक अर्थ किये हैं - (१) जो अवश्य करने योग्य कार्य हो वे आवश्यक कहलाते हैं। (२) जो आध्यात्मिक सद्गुणों का आश्रय हो वह आवश्यक हैं। (३) जो आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों के वश (अधीन) करता है उसे आवश्यक कहते हैं। (४) जो इन्द्रिय, कषाय आदि भाव शत्रुओं को सर्वतः वश में करता है वह आवश्यक है। (५) जो आत्मा को ज्ञानादि गुणों से सुवासित एवं अनुरंजित करता है उसे आवश्यक कहते हैं अथवा जो आत्मा को सद्गुणों से सुशोभित करते हैं वे आवश्यक हैं। इस प्रकार आवश्यक, आत्मविशुद्धि हेतु अवश्य की जाने वाली एक श्रेष्ठ साधना पद्धति है। जैनागमों में निम्न छ: आवश्यकों का उल्लेख मिलता है - (१) सामायिक (२) चतुर्विंशतिस्तव (३) वन्दन (४) प्रतिक्रमण (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान। यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र में इन छ: आवश्यक कर्म को 'आवश्यक' नाम नहीं दिया गया है और न ही इनके स्वरूप का कहीं स्पष्ट वर्णन उपलब्ध होता है, पर इसके उनतीसवें अध्ययन में इन छ: आवश्यक कृत्यों के पालन से प्राप्त होने वाले फलों का निरूपण किया गया है। 186 १८५ अनुयोगद्वार - २८/१. १८६ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/९-१४ । - (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २६६) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy