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________________ ३४० १. कायव्युत्सर्ग : शरीर के प्रति आसक्ति को दूर करने के लिए, कुछ समय के लिए देह-चिन्ता से मुक्त होकर ध्यान करना कायव्युत्सर्ग है। २. गणव्युत्सर्ग : साधना के प्रयोजन से गण (सामूहिकजीवन) को छोड़कर एकान्त में रहना या ध्यान आदि करना गणव्युत्सर्ग है। ३. उपधिव्युत्सर्ग : संयमयात्रा में सहायक उपकरण को उपधि कहते हैं। वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का त्याग करना, कम करना। यदि उनमें भी आसक्ति हो तो उनका भी त्याग करना उपधिव्युत्सर्ग है। ४. भक्तव्युत्सर्ग : आहारपानी का त्याग या आहार के प्रति आसक्ति का त्याग करना भक्तव्युत्सर्ग है। भाव (आभ्यन्तर) व्युत्सर्ग तीन प्रकार का है : १. कषायव्युत्सर्ग : क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग, करना कषाय व्युत्सर्ग २. संसारव्युत्सर्ग : संसार के मूल राग-द्वेष रूपी भावों का त्याग करना संसार व्युत्सर्ग है। ३. कर्मव्युत्सर्ग : कर्म आश्रव बन्ध का कारण है और आश्रव का कारण मानसिक, वाचिक एवं कायिक क्रियाएं या योग हैं। अतः अपनी योगिक प्रवृत्ति को रोकना कर्मव्युत्सर्ग है। इससे आत्मा में कर्मबन्ध नहीं होता है। उत्तगध्ययनसूत्र में व्युत्सर्ग के कायव्युत्सर्ग भेद को प्रमुखता देते हुए कहा गया है कि सोते, बैठते या खड़े रहते अपने शरीर के व्यापारों का त्याग करना, यह काया का व्युत्सर्ग है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में व्युत्सर्गतप के लिये कायोत्सर्ग शब्द ही प्रयुक्त होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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