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________________ एक परिशीलन पर ध्यान, समाधि प्रादि योगांगों का भव्य भवन खड़ा कर दिया है और क्रमशः योग-साधना का सांगोपांग वर्णन किया है। प्रथम-प्रकाश प्रस्तुत योग-शास्त्र बारह प्रकाशों में विभक्त है। प्रथम प्रकाश में साधुत्व की साधना का वर्णन किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीन श्लोकों में मंगलाचरण है । चतुर्थ श्लोक में योग-शास्त्र रचने की प्रतिज्ञा की है। उसके बाद श्लोक ५ से १३ तक योग-साधना से प्राप्त लब्धियों का उल्लेख किया गया है। उसके पश्चात् योग के स्वरूप एवं उसके मूलसम्यज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के स्वरूप का वर्णन किया है। चारित्रप्राचार-साधना में साधु के पांच महाव्रतों, उनकी पच्चीस भावनाओं, पञ्च-समिति, त्रि-गुप्ति का तथा द्विविध-साधु-धर्म एवं गृहस्थ-धर्म का वर्णन किया है। द्वितीय-प्रकाश ' प्रस्तुत प्रकाश के प्रारम्भ में सम्यक्त्व-मूलक श्रावक के बारह व्रतों के नामों का उल्लेख किया है। दूसरे-तीसरे श्लोक में सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व के स्वरूप को बताया है । श्लोक ४ से १४ तक देव और कुदेव गुरु और कुगुरु एवं धर्म और कुधर्म के लक्षण को बताकर साधक को यह संकेत किया है कि उसे कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का त्याग करके सच्चे देव, गुरु और धर्म की उपासना करनी चाहिए। १५ से १७ तक तीन श्लोकों में सम्यक्त्व के लक्षण, उसके भूषण एवं दूषणों का वर्णन किया है। श्लोक १८ से ११५ तक पाँच अणुव्रतों के स्वरूप, उनके भेद-प्रभेद एवं उनके गुण-दोषों का विस्तार से वर्णन किया है। इसमें यह स्पष्ट रूप से बताया है कि श्रावक को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य पौर अपरिग्रह व्रत का कैसे पालन करना चाहिए। उसका खान-पान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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