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________________ एक परिशीलन राग-द्वेष एवं कषाय प्रादि, दोषों का क्षय करना-मोक्ष है। इसलिए इसमें यह बताया है कि कषाय पर विजय प्राप्त करने का साधन इन्द्रियजय है, इन्द्रियों को जीतने का उपाय-मन की शुद्धि है, मन-शुद्धि का साधन है-राग-द्वेष को दूर करना, और उसे दूर करने का साधन है-समत्व भाव की साधना । समत्व भाव की साधना ही ध्यान या योग-साधना की मुख्य विशेषता है । यह वर्णन योग-शास्त्र में भी शब्दशः एवं अर्थशः एक-सा है। यह सत्य है कि अनित्य प्रादि बारह भावनाओं और पांच महाव्रतों का वर्णन उभय ग्रन्थों में एक-से शब्दों में नहीं है । फिर भी वर्णन की शैली में समानता है। उभय ग्रन्थों में यदि कुछ अन्तर है तो वह यह है कि ज्ञानार्णव के तीसरे प्रकरण में ध्यान-साधना करने वाले साधक के लिए गृहस्थाश्रम के त्याग का स्पष्ट विधान किया गया है, जब कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने गृहस्थाश्रम की भूमिका पर ही योग-शास्त्र की रचना की है। प्राचार्य शुभचन्द्र कहते हैं- "बुद्धिशाली एवं त्याग-निष्ठ होने पर भी साधक महादुःखों से भरे हुए और अत्यधिक निन्दित गृहस्थाश्रम में रहकर प्रमाद पर विजय नहीं पा सकता और चंचल मन को वश में नहीं कर सकता । अतः चित्त की शान्ति के लिए महापुरुष गृहस्थाश्रम का त्याग ही करते हैं।" "अरे ! किसी देश और किसी काल-विशेष में प्राकाश-पुष्प और गधे के सिर पर शृङ्ग का अस्तित्व मिल भी सकता है, परन्तु किसी भी काल और किसी भी देश में गृहस्थाश्रम में रहकर ध्यान सिद्धि को प्राप्त करना सम्भव ही नहीं है।" परन्तु प्राचार्य हेमचन्द्र ने गृहस्थ अवस्था में ध्यान सिद्धि का निषेध नहीं किया है। मागमों में भी गहस्थ जीवन में धर्म-ध्यान की साधना को स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में तो यहां तक कहा गया है कि किसी साधु की साधना की अपेक्षा गृहस्थ भी साधना में उत्कृष्ट हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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