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________________ द्वादश-प्रकाश २६५ सत्येतस्मिन्नरतिरतिदं गृह्यते वस्तु दूरादप्यासन्नेऽप्यसति तु मनस्याप्यते नैव किञ्चित् । पुसामित्यप्यवगतवतामुन्मनीभावहेता विच्छा बाढं न भवति कथं सद्गुरूपासनायाम् ॥५३।। मन की विद्यमानता में अरति उत्पन्न करने वाली व्याघ्र प्रादि वस्तु और रति उत्पन्न करने वाली वनिता आदि वस्तु दूर होने पर भी मन के द्वारा ग्रहण की जाती है और मन की अविद्यमानता अर्थात् उन्मनीभाव उत्पन्न हो जाने पर समीप में रही हई भी सुखद और दुःखद वस्तु भी ग्रहण नहीं की जाती। जब तक मन का व्यापार चालू है, तब तक मनुष्य दूरवर्ती वस्तुत्रों में से भी किसी को सुखदायक और किसी को दुःखदायक मानता है। किन्तु, अमनस्क भाव प्राप्त होने पर समीपवर्ती वस्तु भी न सुखद प्रतीत होती है और न दुःखद ही प्रतीत होती है । क्योंकि सुख और दुःख मन से उत्पन्न होने वाले विकल्प हैं। वस्तु न सुख रूप है और न दुःख रूप ही है। जिन्होंने इस तथ्य को समझ लिया है, वे उन्मनीभाव को उत्पन्न करने वाले सद्गुरु की उपासना के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। टिपप्ण-कहने का तात्पर्य यह है कि उन्मनीभाव उत्पन्न हो जाने पर योगी की दृष्टि में यह विकल्प नहीं रह जाता कि अमुक वस्तु सुखदायी है और अमुक दुःखदायी। यह स्थिति अत्युत्तम और प्रानन्दमय है । परन्तु, इसकी प्राप्ति सद्गुरु की उपासना से ही होती है । प्रात्म-साधना तांस्तानापरमेश्वरादपि परान् भावैः प्रसादं नयन्, तैस्तैस्तत्तदुपायमूढ भगवन्नात्मन् किमायस्यसि । हन्तात्मानमपि प्रसादय मनाग् येनासतां सम्पदः, साम्राज्यं परमेऽपि तेजसि तव प्राज्यं समुज्ज भते ॥५४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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