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________________ २६२ योग-शास्त्र प्रमाद का परित्याग करके, अमनस्कता रूपी शलांका से उसका भेदन करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि चंचल वस्तु का भेदन करना कठिन होता है। किन्तु, चपल होने के साथ जो अत्यन्त सूक्ष्म है उसका भेदन करना और भी कठिन है। फिर जो चपल और सूक्ष्म होने के साथ अत्यन्त वेगवान हो उसका भेदना तो और भी कठिन है। मन में यह तीनों विशेषताएं विद्यमान हैं, अत: उसको जीतना सरल नहीं है, फिर भी असंभव नहीं है। यदि निरंतर अप्रमत्त रहकर उन्मनीभाव का अभ्यास किया जाए तो, उसे अवश्य जोता जा सकता है । उन्मनीभाव की पहचान विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोड्डीनमिव प्रलीनमिव कायम् । अमनस्कोदय-समये योगी जानात्यसत्कल्पम् ।। ४२ ।। अमनस्कता-उन्मनीभाव का उदय होने पर योगी को अपने शरीर के विषय में अनुभूति होने लगती है कि मानो शरीर बिखर गया है, भस्म हो चुका है, उड़ गया है, विलीन हो गया है और वह है ही नहीं । अतः जब योगी शरीर की तरफ से बेसुध हो जाए, उसकी दृष्टि में शरीर का अस्तित्व ही न रह जाए, तब समझना चाहिए कि इसमें अमनस्कता उत्पन्न हो गई है। समदैरिन्द्रिय-भुजगे रहित विमनस्क-नव-सुधाकुण्डे । मग्नोऽनुभवति योगी परामृतास्वादमसमानम् ।। ४३ ॥ मदोन्मत्त इन्द्रिय रूपी भुजंगों से छुटकारा पाया हुअा योगी उन्मनीभाव रूपी नवीन सुधा के कुण्ड में मग्न होकर अनुपम और उत्कृष्ट तत्त्वामृत का प्रास्वादन करता है। रेचक-पूरक-कुम्भक-करणाभ्यासक्रमं विनाऽपि खलु । स्वयमेव नश्यति मरुद्विमनस्के सत्य-यत्नेन ।। ४४ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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