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________________ एकादश प्रकाश २६६ प्रथम प्रकार के शुक्ल- ध्यान का अच्छा अभ्यास हो जाने के पश्चात् वह दूसरे प्रकार का शुक्ल - ध्यान करने लगता है । उत्पाद -स्थिति-भंगादिपर्ययाणां यदेकयोगः सन् । ध्यायति पर्ययमेकं तत्स्यादेकत्वमविचारम् ॥। १८ ।। जब ध्यानकर्त्ता तीन योगों में से किसी एक योग का आलम्बन करके, उत्पाद, विनाश और धौव्य आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय का चिन्तन करता है, तब 'एकत्व - अविचार' ध्यान कहलाता है । त्रिजगद्विषयं ध्यानादणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः । विषमिव सर्वाङ्गगतं मन्त्रबलान्मांत्रिको दंशे ।। १९ ।। जैसे मन्त्र - वेत्ता मन्त्र के बल से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हुए विष को एक देश -स्थान में लाकर केन्द्रित कर देता है, उसी प्रकार योगी ध्यान के बल से तीनों जगत् में व्याप्त, अर्थात् सर्वत्र भटकने वाले मन को अणु पर लाकर स्थिर कर लेते हैं । अपसारितेन्धनभरः शेषः स्तोकेन्धनोऽनलो ज्वलितः । तस्मादपनीतो वा निर्वाति यथा मनस्तद्वत् ।। २० ।। जलती हुई आग में से ईंधन को खींच लेने या बिलकुल हटा देने पर थोड़े ईंधन वाली अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार जब मन को विषय रूपी ईंधन नहीं मिलता है, तो वह भी स्वतः ही जाता है । शान्त हो शुक्ल-ध्यान का फल ज्वलति ततरच ध्यानज्वलने भृशमुज्ज्वले यतीन्द्रस्य । निखिलानि विलीयन्ते क्षणमात्राद् घाति- कर्माणि ॥ २१ ॥ जब ध्यान रूपी जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित होती है, तो योगीन्द्र के समस्त - चारों घाति-कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । - Jain Education International For Personal & Private Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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