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________________ एकादश प्रकाश - - शुक्ल ध्यान स्वर्गापवर्ग-हेतुर्धर्म-ध्यानमिति कीर्तितं यावत् । अपवर्गकनिदानं शुक्लमनः कीर्त्यते ध्यानम् ॥ १॥ स्वर्ग और मोक्ष-दोनों के कारणभूत धर्म-ध्यान का वर्णन किया जा चुका है। अब मोक्ष के अद्वितीय कारण-शुक्ल-ध्यान के स्वरूप का वर्णन करते हैं। शुक्ल-ध्यान का अधिकारी इदमादि-संहनना एवालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् । स्थिरतांन याति चित्तं कथमपि यत्स्वल्प-सत्त्वानाम् ॥२॥ वज्रऋषभनाराच संहनन वाले और पूर्वश्रुत के धारक मुनि ही शुक्ल-ध्यान करने में समर्थ होते हैं । अल्प सामर्थ्य वाले मनुष्यों के चित्त में किसी भी तरह शुक्ल-ध्यान के योग्य स्थिरता नहीं आ सकती। धत्ते न खलु स्वास्थ्यं व्याकुलितं तनुमतां मनोविषयैः । शुक्ल - ध्याने तस्मान्नास्त्यधिकारोऽल्प - साराणाम् ॥ ३ ॥ इन्द्रिय-जन्य विषयों के सेवन से व्याकुल बना हुआ मनुष्यों का मन स्वस्थ, शान्त एवं स्थिर नहीं हो पाता। यही कारण है कि अल्प सत्व वाले प्राणियों को शुक्ल-ध्यान करने का अधिकार नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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