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________________ २५२ योग-शास्त्र समय देवरचित तीन प्रतिबिम्बों के कारण जो चार मुख वाले दिखाई देते हैं, जो तीन लोक के प्राणीमात्र को अभयदान देने वाले हैं तथा चन्द्रमण्डल के सदृश तीन उज्ज्वल छत्रों से सुशोभित हैं, सूर्यमंडल की प्रभा का तिरस्कार करने वाला भामंडल जिनके पीछे जगमगा रहा है, दिव्य दु'दुभि के निर्घोष से जिनकी आध्यात्मिक सम्पदा का गान किया . जा रहा है, जो गुंजार करते हुए भ्रमरों की झंकार से शब्दायमान अशोक वृक्ष से सुशोभित है, सिंहासन पर आसीन हैं, जिनके दोनों ओर चामर ढुलाये जा रहे हैं, वन्दन करते हुए सुरों और असुरों के मस्तक के रत्नों की कान्ति से जिनके चरणों के नख चमक रहे हैं, देवकृत दिव्य पुष्पों के समूह के कारण जिनके समवसरण की विशाल भूमि भी संकीर्ण हो गई है, गर्दन ऊपर उठाकर मृगादि पशुओं के झुण्ड जिनकी मनोहर ध्वनि का पान कर रहे हैं, जिनका जन्म-जात वैर शान्त हो गया हैऐसे सिंह और हाथी आदि विरोधी जीव जिनकी उपासना कर रहे हैं, जो समस्त अतिशयों से सम्पन्न हैं, केवल-ज्ञान के प्रकाश से युक्त हैं, परम पद को प्राप्त हैं और समवसरण में स्थित हैं, ऐसे अरिहन्त भगवान् के स्वरूप का अवलम्बन करके किया जाने वाला ध्यान 'रूपस्थ-ध्यान' कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का दूसरा भेद राग - दुष-महामोह-विकारैरकलङ्कितम् । शान्तं कान्तं मनोहारि सर्वलक्षण-लक्षितम् ।।८।। तीथिकैरपरिज्ञात - योगमुद्रा - मनोरमम् । अक्ष्णोरमन्दमानन्द-निःस्यन्दं' दददद्भुतम् ॥६॥ जिनेन्द्र - प्रतिमारूप मपिनिर्मल - मानसः । निनिमेषशा ध्यायन् रूपस्थ-ध्यानवान् भवेत् ॥१०॥ १. निस्पन्दं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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