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________________ अष्टम प्रकाश २४५ मात्र से जन्म-मरण के कारणों का अन्त हो जाता है और स्मरणकर्त्ता उस अव्यय पद को प्राप्त कर लेता है, जो परमानन्द का कारण है । प्ररणव, शून्य और अनाहत का ध्यान नासाग्रे प्रणवः शून्यमनाहतमिति त्रयम् । ध्यायन् गुणाष्टकं लब्ध्वा ज्ञानमाप्नोति निर्मलम् ||६०|| नासिका के अग्रभाग पर प्रणव- मोंकार, शून्य – ०, , और अनाहत - ह, इन तीन का अर्थात् 'प्रों हं' का ध्यान करने वाला अणिमा, गरिमा आदि आठ सिद्धियाँ को प्राप्त करके निर्मल ज्ञान को प्राप्त करता है । शंख-कुन्द - शशांकाभांस्त्रीनमृत् ध्यायतः सदा । समग्र - विषयज्ञान- प्रागल्भ्यं जायते नृणाम् ||६१|| शंख, कुन्द श्रौर चन्द्र के समान श्वेत वर्ण के प्रणव, शून्य और अनाहत का ध्यान करने वाले पुरुष समस्त विषयों के ज्ञान में प्रवीण हो जाते हैं । सामान्य विद्या द्वि- पार्श्व-प्रणव- द्वन्द्व प्रान्तयोर्मायया वृतम् । सोऽहं मध्ये विमूर्धानं श्रहंली कारं विचिन्तयेत् ॥ ६२॥ जिनके दोनों ओर दो-दो प्रकार हैं, प्रादि श्रौर अन्त में ही कार है, मध्य में सोऽहं है और उस सोऽहं के मध्य में अहं ली है, अर्थात् जिसका रूप यों है - ह्रीँ पो प्रों सः ग्रहं लीं हं मों प्रों ह्रीँ — इन अक्षरों का ध्यान करना चाहिए । - विद्या का ध्यान कामधेनुमिवाचिन्त्य - फल - सम्पादन क्षमाम् । अनवद्यां जपेद्विद्यां गणभृद् वदनोद्गताम् ||६३॥ कामधेनु के समान अचिन्त्य फल प्रदान करने में समर्थ, निर्दोष और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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