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________________ अष्टम प्रकाश २३६ का, अर्थात् आग्नेय कोण में 'एसो पंचनमुक्कारो' का, नैऋत्य कोण में 'सव्वपावप्पणासणी' का, वायव्य कोण में 'मंगलाणं च सव्वेसिं' का और ईशान कोण में 'पढमं हवइ मंगलं' का ध्यान करना चाहिए । परमेष्ठि- मंत्र के चिन्तन का फल त्रिशुद्धया चिन्तयंस्तस्य भुज्जानोऽपि लभेतैव शतमष्टोत्तरं मुनिः । चतुर्थ तपसः फलम् ॥ ।। ३५ ॥ " मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक एक सौ आठ बार इस नमस्कार - महामंत्र का चिन्तन करने वाला मुनि प्रहार करता हुआ भी एक उपवास का फल प्राप्त करता है । एवमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिनः । त्रिलोक्याऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम् || ३६ ॥ इस महामन्त्र की सम्यक् प्रकार से आराधना करके योगी जन प्रात्म- लक्ष्मी को प्राप्त करके त्रि-जगत् के पूजनीय बन जाते हैं ।. ।। कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । मन्त्रं समाराध्य तिर्यञ्चोऽपि दिवंगताः ॥ ३७ ॥ हजारों पाप करके और सैकड़ों प्राणियों का हनन करके तिर्यञ्च भी इस मंत्र की श्राराधना करके स्वर्ग को प्राप्त करने में समर्थ हुए हैं । पंचपरमेष्ठि- विद्या गुरु- पंचनामोत्था विद्या स्यात् षोडशाक्षरा । जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्याप्नुयात्फलम् ॥ ३८ ॥ Jain Education International पंच परमेष्ठी के नाम से उत्पन्न होने वाली सोलह अक्षर की विद्या इस प्रकार है - 'अरिहंत सिद्ध श्रायरिय उवज्झाय - साहू | इस विद्या का दो सौ बार जाप करने से एक उपवास का फल मिलता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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