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________________ २२१ श्रतः मन को प्रशान्त बनाने के लिए उसे विषयों की ओर से हटाना श्रावश्यक है । प्रशान्त मन ही निश्चल हो सकता है और धर्मध्यान के लिए मन का निश्चल होना अनिवार्य है । अतः मन को बाह्य एवं अभ्यन्तर इन्द्रियों से पृथक् कर लेना ही 'प्रत्याहार' कहलाता है । धारणा नाभी - हृदय - नासाग्र-भाल - भ्रू - तालु-दृष्टयः । मुखं कर्णौ शिरश्चेति ध्यानस्थानान्यकीर्त्तयन् ॥७॥ नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल, भ्रकुटि, तालु, नेत्र, मुख, कान और मस्तक, यह ध्यान करने के लिए धारणा के स्थान हैं । अर्थात् इन स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर चित्त को स्थिर करना चाहिए । चित्त को स्थिर करना ही 'धारणा' है । षष्ठं प्रकाश टिप्पण -- ध्यान के लिए वचन और काय के साथ मन को एकाग्र करना आवश्यक है । अतः ध्यान — आत्म-चिन्तन करते समय यह आवश्यक है कि मन को एक पदार्थ के चिन्तन में स्थिर किया जाए । वस्तुतः ध्यान मन को एक स्थान पर एकाग्र करने — स्थिर रखने की साधना है। धाररणा का फल एषामेकत्र कुत्रापि स्थाने स्थापयतो मनः । उत्पद्यन्ते स्वसंवित्तेर्वहवः प्रत्ययाः पूर्वोक्त स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर को स्थापित करने से निश्चय ही स्वसंवेदन के होते हैं Jain Education International किल ॥ ८ ॥ लम्बे समय तक मन अनेक प्रत्यय उत्पन्न टिप्पण - इन्द्रियों को और मन को विषयों से खींच लेने के पश्चात् धारणा होती है । विषयों से विमुख बने हुए मन को नासिकाग्र आदि स्थानों पर स्थापित कर लिया जाता है । इस प्रक्रिया से कुछ ऐसा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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