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________________ चन्द्र-क्षेत्र सूर्य-क्षेत्र वायुज्ञान का महत्त्व पंचम प्रकाश वाम विभागे हि शशिक्षेत्रं प्रचक्षते । पृष्ठे दक्षिण भागे तु रविक्षेत्रं मनीषिणः ।। २५३ ॥ विद्वान् पुरुषों का कथन है कि शरीर के वाम भाग में आगे की ओर चन्द्र का क्षेत्र है और दाहिने भाग में पीछे की भोर सूर्य का क्षेत्र है । २१३ लाभालाभ सुखं दुःखं जीवितं मरणं तथा । विदन्ति विरलाः सम्यग् वायुसंचारखेदिनः ॥ २५४ ॥ वायु के संचार को जानने वाले पुरुष सम्यक् रूप से लाभ-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण को जानते हैं, परन्तु ऐसे वायु-संचार वेत्ता विरले पुरुष ही होते हैं । नाड़ी-शुद्धि अखिलं वायुजन्मेदं सामर्थ्यं तस्य जायते । तु नाडि-विशुद्धि यः सम्यग् जानात्यमूढधीः ।। २५५ ॥ जो प्रबुद्ध पुरुष भली-भाँति नाड़ी की विशुद्धि करना जानता है, उसे वायु से उत्पन्न होने वाले सर्व सामर्थ्य प्राप्त हो जाते हैं । वह व्यक्ति सर्वशक्ति- संपन्न हो जाता है । नाड़ी शुद्धि की विधि Jain Education International नाभ्यब्ज-कणिकारूढं कलाबिन्दु - पवित्रितम् । रेफाक्रान्तं स्फुरद्भासं हकारं परिचिन्तयेत् ।। २५६ ।। तं ततश्च तडिद्व ेगं स्फुलिंगाचिशताश्चितम् । रेचयेत्सूर्यमार्गेण प्रापयेच्च नभस्तलम् || २५७ ।। अमृतैः प्लावयन्तं तमवतार्य शनैस्ततः । चन्द्राभं चन्द्रमार्गेण नाभिपद्म निवेशयेत् ॥ २५८ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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