SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शासनों का विधान चतुर्थ प्रकाश ६. कायोत्सर्गासन प्रलम्बित - भुज- द्वन्द्वमूर्ध्वस्थस्यासितस्य वा । स्थानं कायानपेक्षं यत्कायोत्सर्गः स कीर्तितः ॥ १३३ ॥ कायिक- शारीरिक ममत्व का त्याग करके, दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर शरीर और मन से स्थिर होना 'कायोत्सर्गासन' है । यह श्रासन खड़े होकर, बैठकर और शारीरिक कमजोरी की अवस्था में लेट कर भी किया जा सकता है । इस आसन की विशेषता यह है कि इसमें मन, वचन और काय - योग को स्थिर करना पड़ता है । केवल परिचय के लिए उक्त श्रासनों का स्वरूप बतलाया गया है । इनके अतिरिक्त और भी अनेक श्रासन हैं, जिन्हें अन्यत्र देखना चाहिए । १४.६ Jain Education International जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यान-साधनम् ॥ १३४ ॥ कानों का ही प्रयोग किया जाए और अमुक का नहीं, ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है । जिस-जिस श्रासन का प्रयोग करने से मन स्थिर होता हो, उसी ग्रासन का ध्यान के साधन के रूप में प्रयोग करना चाहिए । ध्यान विधि सुखासन -समासीनः सुश्लिष्टाधरपल्लवः । नासाग्रन्यस्तदृगुद्वन्द्वो दन्तैर्दन्तान संस्पृशन् ॥ १३५ ।। प्रसन्न वदनः पूर्वाभिमुखो वाप्युदङ्मुखः । अप्रमत्तः सुसंस्थानो ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत् ।। १३६ ।। ध्याता पुरुष जब ध्यान करने के लिए उद्यत हो, तब उसे इन बातों का ध्यान रखना चाहिए--- For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy