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________________ चतुर्थ प्रकाश १२७ साधना-सामायिक की शलाका से पृथक् कर देता है अर्थात् निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। समभाव का प्रभाव रागादिध्वान्तविध्वंसे, कृते सामायिकांशुना। स्वस्मिन् स्वरूपं पश्यन्ति योगिनः परमात्मनः।। ५३ ॥ समभाव रूपी सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह का अंधकार नष्ट कर देने पर योगी अपनी प्रात्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगते हैं । स्निह्यन्ति जन्तवो नित्यं वैरिणोऽपि परस्परम् । अपि स्वार्थकृते साम्यभाजः साधोः प्रभावतः ।। ५४ ॥ यद्यपि साधु अपने स्वार्थ के लिए अपने आनन्द के लिए, समभाव का विकास करता है, फिर भी समभाव की महिमा ऐसी अद्भुत है कि उसके प्रभाव से नित्य वैर रखने वाले सर्प-नकुल जैसे प्राणी भी परस्पर प्रीति-भाव धारण करते हैं। समभाव की साधना साम्यं स्यान्निर्ममत्वेन, तत्कृते भावनाः श्रयेत् । अनित्यतामशरणं भवमेकत्वमन्यताम् ।। ५५ ।। अशौचमास्रवविधि संवरं कर्म-निर्जराम् । धर्मस्वाख्याततां लोकं, द्वादशी बोधिभावनाम्॥५६ ।। - समभाव की प्राप्ति निर्ममत्व भाव से होती है और निर्ममत्व भाव जागृत करने के लिए द्वादश भावनाओं का आश्रय लेना चाहिए१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचित्व, ७. आश्रव, ८. संवर, ६. निर्जरा, १०. धर्म-स्वाख्यात, ११. लोक, और १२. बोधि-दुर्लभ । टिप्पण-राग और द्वेष, दोनों की विरोधी भावना 'समभाव' है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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