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________________ ७० योग-शास्त्र पतन का कारण तपः श्रुतपरीवारांशम-साम्राज्य-संपदम् ।। परिग्रह-ग्रह-ग्रस्तास्त्यजेयुर्योगिनोऽपि हि ।।११३।। परिग्रह रूप ग्रह से ग्रसित योगी भी अपने तप और श्रुत के परिवार वाले समभाव रूपी साम्राज्य का त्याग कर देते हैं। जो योगी परिग्रह के चक्कर में पड़ जाते हैं, वे तपस्या और श्रुत साधना से पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। असंतोषवतः सौख्यं न शक्रस्य न चक्रिणः । जन्तोः संतोषभाजो यदभयस्मेव जायते ॥११४।। जो सुख और संतोष इन्द्र अथवा चक्रवतियों को भी नहीं मिल पाता, वही सुख, संतोष वृत्ति वाले अभयकुमार जैसों को प्राप्त होता है । संतोष की महिमा संनिधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी । अमराः किंकरायन्ते संतोषो यस्य भूषणम् ॥११॥ संतोष जिस मनुष्य का भूषण बन जाता है, समृद्धि उसी के पास रहती है, उसी के पीछे कामधेनु चलती है और देव भी दास की तरह उसकी आज्ञा मानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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