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________________ ૬૪ व्यभिचार का फल नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यञ्च भवे भवे । भवेन्नराणां स्त्रीणां, चान्यकान्तासक्तचेतसाम् ।। १०३ ।। योग- शास्त्र ब्रह्मचर्य का फल जो पुरुष परस्त्री में श्रासक्त होता है और जो स्त्री परपुरुष में आसक्त होती है, उसे भव-भव में नपुंसक होना पड़ता है, तिर्यञ्च गति में जाना पड़ता है | , प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रह्म ककारणम् । समाचरन् ब्रह्मचर्य, पूजितैरपि पूज्यते ॥ १०४ ॥ , ब्रह्मचर्य — देशविरति और सर्वविरति संयम का मूल है तथा परब्रह्म - मोक्ष का एक मात्र कारण है । ब्रह्मचर्य का परिपालक पूज्यों का भी पूज्य बन जाता है । ब्रह्मचारी – सुरों, असुरों एवं नरेन्द्रों का भी पूजनीय हो जाता है । चिरायुषः सुसंस्थाना - दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ।। १०५ ।। Jain Education International ब्रह्मचर्य के प्रभाव से प्राणी - दीर्घ आयु वाला, सुन्दर प्राकार वाला, दृढ़ शरीर वाला, तेजस्वी और अतिशय बलवान् होता है । टिप्पण - ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले शुभ गति प्राप्त करते हैं । शुभ गतियाँ दो हैं – देवगति श्रौर मनुष्यगति । श्रनुत्तर विमान आदि स्वर्ग विमानों में जो जन्म लेते हैं, वे लम्बी श्रायु और समचतुरस्र संस्थान पाते हैं, और मनुष्य गति में जन्म लेने वाले वज्र - ऋषभ नाराच जैसा सुदृढ़ संहनन पाते हैं । तीर्थंकर और चक्रवर्ती आदि के रूप में उत्पन्न होने वाले - तेजस्वी और महान् बलशाली होते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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