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________________ ६० योग- शास्त्र न देवान्न गुरून्नापि, सुहृदो न च बान्धवान् । श्रसत्सङ्गरतिनित्यं, वेश्यावश्यो हि मन्यते ॥ ६१ ॥ कुष्ठिनोऽपि स्मरसमान् पश्यन्तीं धनकाङ क्षया । तन्वन्तीं कृत्रिम स्नेहं निःस्नेहां गणिकां त्येजेत् ॥ ६२ ॥ जिनके मन में कुछ और होता है, वचन में कुछ और होता है तथा क्रिया में कुछ और होता है, वे साधारण स्त्रियाँ – वेश्याएँ कैसे सुख दे सकती हैं ? सुख के लिए पारस्परिक विश्वास होना चाहिए । किन्तु जहाँ धूर्तता है, छल-कपट है, ठगने की वृत्ति है, वहाँ पारस्परिक विश्वास कहाँ ? और जहाँ विश्वास नहीं, वहाँ सुख भी नहीं । वेश्याएँ मांस और मदिरा का सेवन करती हैं, अतः उनका मुख इन शुचि वस्तुओं से भरा रहता है । अनेक व्यभिचारी पुरुष उनके मुख को चूमते हैं । अत: कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो वेश्याओं के ऐसे अपावन मुख का चुम्बन करना चाहेगा ? वेश्याएँ अत्यन्त लोभ-ग्रस्त और स्वार्थपरायण होती हैं । किसी कामी पुरुष ने उन्हें अपना सर्वस्व दे दिया है । परन्तु अब दरिद्र होने से वह और कुछ नहीं दे सकता, तो उस जाते हुए व्यक्ति का वे वस्त्र भी छीन लेती हैं । नित्य दुष्ट-दुराचारियों के संसर्ग में रहने वाला, वेश्या के वशीभूत हुआ पुरुष न देवों को मानता है, न गुरुनों को मानता न मित्रों को मानता है और न बन्धु-बांधवों को ही मानता है । वेश्याएँ धन के लालच से कोढ़ी को भी कामदेव के समान समझती । वे वस्तुतः स्नेह से सर्वथा रहित होती हैं, फिर भी स्नेह का दिखावा करती हैं । अतः वेश्याओं से दूर रहना ही उचित है । परस्त्री गमन निषेध नासक्त्या सेवनीया हि, स्वदारा प्रप्युपासकैः । आकरः सर्वपापानां किं पुनः परयोषितः ॥ ६३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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